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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो ] जो नय वस्तुको [ विसेसरूवेहिं ] विशेषरूपसे [ अविणाभूदं ] अविनाभूत [ सामण्णं] सामान्य स्वरूपको [ णाणाजत्तिवलादो] अनेक प्रकारकी युक्तिके बलसे [ साहदि ] सिद्ध करता है [ सो दव्वत्थो णओ होदि ] वह द्रव्याथिक नय है।
अब पर्यायार्थिक नयको कहते हैं ।
जो साहेदि विसेसे, बहुविह-सामण्ण संजुदे सव्वे । साहणलिंगवसादो, पज्जयविसयो णो होदि ॥२७०।।
अन्वयार्थः- [ जो] जो नय [ बहुविहसामण्ण संजदे सव्वे विसेसे ] अनेक प्रकार सामान्य सहित सर्व विशेषको [ साहणलिंगवसादो साहेदि ] उनके साधनके लिंगके वशसे सिद्ध करता है [ पजयविसयो "ओ होदि ] वह पर्यायाथिक नय है ।
भावार्थः-सामान्य सहित विशेषोंको हेतुसे सिथ करता है वह पर्यायाथिक नय है जैसे सत् सामान्यसहित चेतन अचेतनत्व विशेष है, चित् सामान्यसे संसारी सिद्ध जीवत्व विशेष है, संसारीत्व सामान्यसहित त्रस स्थावर जीवत्व विशेष है, इत्यादि । अचेतन सामान्यसहित पुद्गल आदि पाँच द्रव्यविशेष हैं । पुद्गल सामान्य सहित अणु स्कन्ध घट पट आदि विशेष हैं इत्यादि पर्यायाथिक नय हेतुसे सिद्ध करता है।
अब द्रव्याथिक नयके भेदोंको कहेंगे । पहिले नैगमनयको कहते हैं
जो साहेदि अदीदं, वियप्परूवं भविस्सम च ।
संपडिकालाविढे सो हु णो णेगमो यो ॥२७१॥
अन्वयार्थः- [जो ] जो नय ] अदीदं ] अतीत [ भविस्समट्ठच ] भविष्यत [ संपडिकालाविट्ठ ] तथा वर्तमानको [ वियप्परूवं साहदि ] संकल्पमात्र सिद्ध करता है [ सो हु णओणेगमो णेयो ] वह नैगम नय है ।
भावार्थः-द्रव्य तीनकालकी पर्यायोंसे अन्वयरूप है उसको अपना विषयकर अतीतकाल पर्यायको वर्तमानवत् संकल्पमें ले, आगामी पर्यायको भी वर्तमानवत् संकल्पमें ले, वर्तमानमें निष्पन्नको तथा अनिष्पन्नको निष्पन्न रूप संकल्पमें ले, ऐसे ज्ञानको तथा वचनको नैगम नय कहते हैं । इसके भेद अनेक हैं । सब नयोंके विषयको
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