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कहते हैं
लोकानुप्रेक्षा
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अब परोक्षज्ञानमें अनुमान प्रमाण भी है उसका उदाहरण पूर्वक स्वरूप
जं जाणिज्जइ जीवो, इन्दियवावारकायचिट्ठाहिं |
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तं प्रमाणं भरणदि, तं पि णयं बहुविहं जाण ॥२६७॥ अन्वयार्थः – [ जं इंदियवावारकायचिट्ठाहिं जीवो जाणिजइ ] जो इन्द्रियों के व्यापार और कायकी चेष्टाओंसे शरीरमें जीवको जानते हैं [ तं अणुमाणं भण्णदि ] उसको अनुमान प्रमाण कहते हैं [ तं पिणयं बहुविहं जाण ] वह अनुमान ज्ञान भी नय है और अनेक प्रकारका है ।
भावार्थ:- पहिले श्रुतज्ञानके
विकल्प नय कहे थे, यहाँ अनुमानका स्वरूप कहा कि शरोर में रहता हुआ जीव प्रत्यक्ष ग्रहण में नहीं आता है इसलिये इन्द्रियों का व्यापार-स्पर्श करन, स्वाद लेना, बोलना, सूंघना, सुनना, देखना चेष्टा तथा गमन आदिक चिह्नोंसे जाना जाता है कि शरीरमें जीव है सो यह अनुमान है क्योंकि साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वह अनुमान कहलाता है । यह भी नय ही है । परोक्षप्रमाणके भेदोंमें कहा है सो परमार्थ से नय ही है । वह स्वार्थ तथा परार्थ के भेदसे और हेतु तथा चिह्नोंके भेदसे अनेक प्रकारका कहा गया है ।
अब नयके भेदोंको कहते हैं
सो संग एक्को, दुविहो वि य दव्वपज्जएहिंतो । तेसिं च विसेसादो, णइगमपहूदी हवे गाणं ॥ २६८ ॥
अन्वयार्थः - [ सो संगहेण एको ] वह नय संग्रह करके कहिये तो
( सामान्यतया ) एक है [ य दव्वपजएहिंतो दुविहो वि ] और द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक के भेदसे दो प्रकारका है [ तेसिं च विसेसादो णइगमपहूदी णाणं हवे ] और विशेषकर उन दोनोंकी विशेषतासे नैगमनयको आदि देकर हैं सो नय हैं और वे ज्ञान ही हैं ।
अब द्रव्यार्थिकनयका स्वरूप कहते हैं—
जो साइदि सामर, अविणाभूदं विसेसरूवेहिं । गाणाजुत्तिबलादो, दव्वत्थो सो होदि ॥ २६६॥
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