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लोकानुप्रेक्षा
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[ संयहुदीहि परिचरां ] संशय विपर्यय अनध्यवसायसे रहित है [ तं सुयणाणं भण्णदि ] उसको श्रुतज्ञान कहते हैं । ऐसा सिद्धान्त में कथन है ।
भावार्थ:- जो सब वस्तुओंको परोक्षरूपसे 'अनेकान्त' प्रकाशित करता है वह श्रुतज्ञान है । शास्त्र के वचनको सुनकर अर्थकों जानता है वह परोक्ष ही जानता है और शास्त्रमें सब ही वस्तुओं का स्वरूप अनेकान्तात्मकरूप कहा गया है सो सब ही वस्तुओंको जानता है । तथा गुरुओंके उपदेशपूर्वक जानता है तब संशयादिक भी नहीं रहते हैं ।
अब श्रुतज्ञानके विकल्प ( भेद ) वे नय हैं, उनका स्वरूप कहते हैंलोयाणं ववहारं, धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि । सुयणाणस्स वियप्पो, सो वि णत्र लिंगसंमृदो ॥ २६३ ॥
अन्वयार्थः - [ जो लोयाणं ववहारं ] जो लोकव्यवहारको [ धम्मविवक्खाइ पसादि ] वस्तुके एक धर्मकी विवक्षासे सिद्ध करता है [ सुयणाणस्स वियप्पो ] श्रुतज्ञानका विकल्प ( भेद ) है [ लिंगसंभूदो ] लिंगसे उत्पन्न हुआ है [ सो वि णओ ] वह नय है ।
भावार्थ:-वस्तु के एक धर्मकी विवक्षा लेकर लोकव्यवहारको साधता है वह श्रुतज्ञानका अंश नय है । वह साध्य धर्मको हेतुसे सिद्ध करता है जैसे वस्तुके सत् धर्मको ग्रहण कर इसको हेतुसे सिद्ध करता है कि 'अपने द्रव्यक्षेत्र काल भावसे वस्तु सरूप है' ऐसे नय, हेतुसे उत्पन्न होता है ।
अब एक धर्मको नय कैसे ग्रहण करता है सो कहते हैं
णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्मं पिबुच्चदे अत्थं । तस्यविवक्खादो, त्थि विक्खा हु सेसाणं ॥ २६४ ॥
अन्वयार्थः – [ णाणधम्मजुदं पि य एवं धम्मं पिबुच्चदे अत्थं ] अनेक धर्मोसे युक्त पदार्थ हैं तो भी एक धर्मरूप पदार्थको कहता है [ तस्सेयविवक्खादो हु सेसाणं featar for ] क्योंकि जहाँ एक धर्मकी विवक्षा करते हैं वहाँ उस ही धर्मको कहते हैं अबशेष ( बाको ) सब धर्मोकी विवक्षा नहीं करते हैं ।
भावार्थ:- जैसे जीव वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, चेतनत्व, अमूर्त्तत्व आदि अनेक धर्म हैं उनमें एक धर्मकी विवक्षासे कहता है
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