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लोकानुप्रेक्षा सम्बन्धसे ) विशद भी कहा जाता है इस कारणसे प्रत्यक्ष भी है, परमार्थसे (निश्चयसे ) परोक्ष ही है । श्रुतज्ञान परोक्ष ही है क्योंकि यह विशद ( स्पष्ट ) नहीं जानता है।
अब इन्द्रियज्ञान, योग्य विषयको जानता है ऐसा कहते हैं
इन्दियजं मदिणाणां, जोग्गं जाणेदि पुग्गलं दव्वं । माणसणाणं च पुणो, सुयविसयं अक्वविसयं च ॥२५८॥
अन्वयार्थः- [इंदियजं मदिणाणं ] इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान [जोग्गं पुग्गलं दव्यं जाणेदि ] अपना योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य उसको जानता है । जिस इन्द्रियका जैसा विषय है वैसा ही जानता है। [ माणसणाणं च पुणो ] और मनसम्बन्धी ज्ञान [ सुयविसयंअक्खविसयं च ] श्रुतविषय ( शास्त्रका वचन सुनकर उसके अर्थको जानता है ) और इन्द्रियोंसे जानने योग्य विषयको भी जानता है।
अब इन्द्रियज्ञानके उपयोगकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे है ऐसा कहते हैंपंचेदियणाणाणं, मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं । मणणाणे उवजुत्ते, इंदियणाणं ण जाणेदि ॥२५६॥
अन्वयार्थ:-[पंचेदियणाणाणं मज्झे एगं च उवजुत्तं होदि ] पांचों ही इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है लेकिन एक काल एकेन्द्रियद्वारसे ज्ञान उपयुक्त होता है । पाँचो ही एक काल उपयुक्त नहीं होते हैं । [ मणणाणे उवजुत्ते ] और जब मन ज्ञानसे उपयुक्त हो [इंदियणाणं ण जाणेदि ] तब इन्द्रियज्ञान उत्पन्न नहीं होता है।
भावार्थ:-इन्द्रियमनसम्बन्धी ज्ञानी प्रवृत्ति युगपत् ( एक साथ ) नहीं होती है, एकसमयमें एक ही से ज्ञान उपयुक्त होता है । जब यह जीव घटको जानता है उससमय पट ( वस्त्र ) को नहीं जानता है, इस तरह ज्ञान क्रमपूर्वक है।
उपर इन्द्रियमनसम्बन्धी ज्ञानकी क्रमसे प्रवृत्ति कही है, यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कि इन्द्रियोंका ज्ञान एककाल है या नहीं ? इस आशंकाको दूर करनेको कहते हैं
एक्के काले एगं, णा जीवस्स होदि उवजुत्तं । णाणाणाणाणि पुणो, लद्धि-सहावेणा वुच्चंति ॥२६०॥
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