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कातिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पज्जत्ति गिहतो ] यह जीव पर्याप्तिको ग्रहण करता हुआ [ जाव ] जबतक [ मणुपज्जत्ति ] मनपर्याप्तिको [ समणोदि ण ] पूर्ण नहीं करता है [ ता णिव्यत्ति अपुण्णो ] तबतक निर्वृत्यपर्याप्तक कहलाता है [ मणपुण्णो पुण्णो भण्णदे ] जब मनपर्याप्ति पूर्ण हो जाती है तब पर्याप्तक कहलाता है ।
भावार्थः–यहां सैनी पंचेन्द्रिय जीवकी अपेक्षा मनमें रख कर ऐसा कथन किया है । अन्य ग्रन्थों में जबतक शरीर पयाप्ति पूर्ण नहीं होती है तबतक निर्वृत्यपर्याप्तक है, ऐसा कथन सब जीवोंका कहा है ।
अन्वयार्थः-[अंतोमुहुत्तकाले] लब्ध्यपर्याप्तक जीवके एक अंतर्मुहूर्तमें [ तिण्णसया छत्तीसा छावठ्ठीसहस्सगाणि मरणानि ] ६६३३६ क्षुद्रमरण होते हैं [ तावदिया चेव खुद्दभवा ] और उतने ही क्षुद्र जन्म होते हैं।
सोदोसठ्ठातालं, वियले चउवास होंति पंचक्खे ।
छावठ्ठि च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयक्खे ॥ ३॥ अन्वयार्थः-[ वियले सीदीसठ्ठातालं ] अन्तर्मुहूर्तकालमें द्वींद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ८०, त्रींद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ६०, चतुरिंद्रिय लब्ध्यपर्याप्नक ४०, [ पंचक्खे चउवास ] पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक २४ [ एयक्खे छावठ्ठि च सहस्सा सयं च बत्तीसं ] और एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ६६१३२ [ होंति ] जन्म मरण करते हैं।
___ भावार्थः-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियके समस्त भवोंको मिलानेसे ६६३३६ क्षुद्रभव होते हैं।
पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहमपत्तेया।
एदेसु अपुण्णेसु य, एक्केक्के वारखं छक्कं ॥ ४ ॥ अन्वयार्थः--[पुढविदगागणिमारुवसाहारणथूलसुहमपत्तेया] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये चारों ही वादर और सूक्ष्म इसप्रकार आठ भेद हुए तथा वादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण और प्रत्येक इसप्रकार तीन भेद वनस्पतिके हुए [ एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के वारखं छक्कं ] इन ग्यारह प्रकारके एकेन्द्रिय जीवोंमें हर एक जीवके एक अन्तर्मुहूर्तमें ६०१२ जन्म मरण होते हैं । इसप्रकार सबका योग करनेसे एकेन्द्रिय जीवोंके ६६१३२ भव होते हैं।
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