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लोकानुप्रेक्षा
८१ अन्वयार्थः-[ आणुधरीयं कुन्थं ] द्वीन्द्रियोंमें अणुद्धरी जीव, त्रीन्द्रियोंमें कुन्थु जीव [ मच्छीकाणा य सालिसित्थो य ] चतुरिन्द्रियोंमें काणमक्षिका, पंचेन्द्रियों में शालिसिक्थक नामक मच्छ इन [ तसाणं ] त्रस [ पजत्ताण ] पर्याप्त जीवोंके [ जहण्णदेहो विणिहिट्ठो ] जघन्य शरीर कहा गया है ।
अब जीवके लोकप्रमाण और देहप्रमाणपना कहते हैंलोयपमाणो जीवो, देहपमाणो वि अस्थिदे खेत्ते ।
ओगाहणसत्तोदो, संहरणविसप्पधम्मादो ॥१७६॥
अन्वयार्थः-[ जीवो ] जीव [ संहारणविसप्पधम्मादो ] संकोच, विस्तार, धर्म तथा [ ओगाहणसत्तीदो] अवगाहनाकी शक्ति होने से [ लोयपमाणो ] लोकप्रमाण है [ देहपमाणो वि अस्थिदे खेते ] और देह प्रमाण भी है।
भावार्थः–लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं इसलिये जीवके भी इतने ही प्रदेश हैं । केवल समूद्घात करता है उस समय लोकपूरण होता है । जीवमें संकोचविस्तारशक्ति है इसलिये जैसा शरीर पाता है उसीके प्रमाण रहता है और समुद्घात करता है तब शरीरके बाहर भी प्रदेश निकलते हैं ।
__अब कोई अन्यमती, जीवको सर्वथा सर्वगत ही कहते हैं उनका निषेध करते हैं
सव्वगो जदि जीवो, सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती । जाइज्ज ण सा दिट्टी, णियतणुमाणो तदो जीवो ॥१७७॥
अन्वयार्थ:-[ जदि जीवो सव्वगओ] यदि जीव सर्वगत ही होवे तो [ सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती] सब क्षेत्रसम्बन्धी सुखदुःखकी प्राप्ति इसको [ जाइज ] होवे [ सा ण दिट्ठी ] परन्तु ऐसा तो दिखाई देता नहीं है [ तदो जीवो ] इसलिये जीव [णियतणुमाणो ] अपने शरीर प्रमाण ही है।।
जीवो णाणसहाबो, जह अग्गी उलओ सहावेण ।
अत्यंतरभूदेण हि, णाणेण ण सो हवे णाणी ॥१७॥
अन्वयार्थः- [जह अग्गी ] जैसे अग्नि [ सहावेण ] स्वभावसे [ उलओ ] उष्ण है [ जीवो णाणसहावो ] वैसे ही जीव ज्ञानस्वभाव है [ अत्यंतरभूदेण हि ] इसलिये
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