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कार्तिकेयानुप्रेक्षा इन्द्रियोंके स्पर्श आदि सब विषयोंको [ विसेसेण ] विशेषरूपसे [ को वा जाणदि ] कौन जानता है।
भावार्थ:-चार्वाक प्रत्यक्षप्रमाण मानता है वह अपने सुखदुःखको तथा इन्द्रियोंके विषयोंको जानता है सो प्रत्यक्ष है । जीवके बिना प्रत्यक्षप्रमाण किसके होता है ? इसलिये जीवका सद्भाव अवश्य सिद्ध होता है।
अब आत्माका सद्भाव जैसे बनता है वैसे कहते हैंसंकप्पमओ जीवो, सुहदुक्खमयं हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो, देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥१८४॥
अन्वयार्थः-[ जीवो संकप्पमओ ] जीव संकल्पमयी है [ संकप्पो सुहदुक्खमयं हवेइ ] संकल्प सुखदुःखमय है [ तं चिय वेददि जीवो ] उस सुखदुःखमयी संकल्पको जानता है वह जीव है [ देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ] वह देहमें सब जगह मिल रहा है तो भी जाननेवाला जीव है ।
अब जीव देहमें मिला हआ सब कार्यों को करता है यह कहते हैंदेहमिलिदो वि जीवो, सव्वकम्माणि कुव्वदे जम्हा । तम्हा पयट्टमाणो, एयत्तं बुज्झदे दोण्हं ॥१८५॥
अन्वयार्थः-[ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो ] जीव [ देहमिलिदो वि ] देहसे मिला हुआ ही [ सव्वकम्माणि कुव्वदे ] ( कर्म नोकर्मरूप ) सब कार्योंको करता है [ तम्हा पयट्टमाणो ] इसलिए उन कार्यों में प्रवृत्ति करते हुए लोगोंको [ दोण्हं एय बुज्झदे] दोनों ( देह और जीव ) के एकत्व दिखाई देता है।
भावार्थ:-लोगोंको देह और जीव न्यारे ( जुदे ) तो दिखाई देते नहीं हैं दोनों मिले हुए दिखाई देते हैं । संयोगसे ही कार्यों की प्रवृत्ति दिखाई देती है इसलिये दोनोंको एक ही मानते हैं ।
अब जीवको देहसे भिन्न जानने के लिये लक्षण दिखाते हैंदेहमिलिद वि पिच्छदि, देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सद्द। देहमिलिदो वि भुजदि, देह मिलिदो वि गच्छेदि ॥१८६॥
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