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लोकानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ परिणामेण विहीणं ] परिणाम रहित [णिचं दव्वं णेव घिणस्सदे ] नित्य द्रव्य नष्ट नहीं होता है [ णो उप्पजदि य ] और उत्पन्न भी नहीं होता है [ कज्जं कहं कुणदि ] तब कार्य कैसे करता है [ एवं सया ] और यदि उत्पन्न व नष्ट होवे तो नित्यपना नहीं ठहरे । इस तरह जो कार्य नहीं करता है वह द्रव्य नहीं है।
अब फिर क्षणस्थायीके कार्यका अभाव दिखाते हैंपज्जयमित्तं तच्चं, विणस्सरं खणे खणे वि अण्णगणं ।
अण्णइदव्वविहीणं, ण य कज्जं किं पि साहेदि ॥२२८॥
अन्वयार्थः- [विणस्सरं ] जो क्षणस्थायी [ पञ्जयमित्तच्चं ] पर्यायमात्र तत्त्व [खणे खणे वि अण्णण्णं ] क्षण क्षण में अन्य अन्य होवे ऐसे विनश्वर मानें तो [ अण्णइदाविहीणं ] अन्वयीद्रव्यसे रहित होता हुआ [ किं पि कज्ज ण य साहेदि ] कुछ भी कार्यको सिद्ध नहीं करता है । क्षणस्थायी विनश्वरके कैसा कार्य ?
अब अनेकान्तवस्तुके ही कार्यकारणभाव बनता है सो दिखाते हैं
णवणवकज्जविसेसा, तीसु वि कालेसु होंति वत्थूणं ।
एक्केकम्मि य समये, पुव्वुत्तरभावमासिज्ज ॥२२६॥ __ अन्वयार्थः- [ वत्थूणं ] जीवादिक वस्तुओंके [ तीसु वि कालेसु ] तीनों ही कालोमें [एक्केक्कम्मि य समये ] एक एक समय में [ पुव्युत्तरभावमासिज्ज ] पूर्वउत्तरपरिणामके आश्रय करके [ णवणवकजपिसेसा ] नवीन नवीन कार्य विशेष [ होति । होते हैं, नवीन नवीन पर्यायें उत्पन्न होती हैं।
अब पूर्वोत्तरभावके कारणकार्यभावको दृढ़ करते हैंपुवपरिणामजुत्तं, कारणभावेण वहृदे दव्यं ।
उत्तरपरिणामजुदं, तं चिय कज्ज हवे णियमा ॥२०३॥
अन्वयार्थः-[ पुव्वपरिणामजुत् ] पूर्वपरिणामयुक्त [ दव्यं ] द्रव्य [ कारणभावेण वट्टदे ] कारणभावसे वर्तता है [ तं चिय ] और वह ही द्रव्य [ उत्तरपरिणामजुदं ] उत्तरपरिणामयुक्त होवे तब [ कज्ज हवे ] कार्य होता है [ णियमा ] ऐसा नियम है ।
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