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लोकानुप्रेक्षा भावार्थः-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धमती कहते हैं कि ज्ञानमात्र ही तत्त्व है वह ही अनेकरूप स्थित है, उसको कहते हैं कि यदि ज्ञानमात्र ही है तो ज्ञेय कुछ भी नहीं है और ज्ञेय नहीं है तब ज्ञान कैसे कहा जावे ? ज्ञेयको जानता है वह ज्ञान कहलाता है। ज्ञेयके बिना ज्ञान नहीं होता है ।
घड़पड़जड़दव्वाणि हि, णेयसरूवाणि सुप्पसिद्धाणि ।
णाणं जाणेदि जदो, अप्पादो भिण्णरूवाणि ॥२४८।।
अन्वयार्थः-[ घड़पड़जड़दव्वाणि हि ] घट पट आदि समस्त जड़द्रव्य [णेयसरूवाणि सुप्पसिद्धाणि ] ज्ञेय स्वरूप से भलेप्रकार प्रसिद्ध हैं [ जदो गाणं जाणेदि ] क्योंकि ज्ञान उसको जानता है [ अप्पादो भिण्णरूवाणि ] इसलिये वे आत्मासे-ज्ञानसे भिन्नरूप रहते हैं।
भावार्थ:-ज्ञेयपदार्थ, जड़द्रव्य भिन्न भिन्न, आत्मासे भिन्नरूप प्रसिद्ध हैं उनका लोप कैसे किया जावे ? यदि न मानें तो ज्ञान भी सिद्ध नहीं होवे, जाने बिना ज्ञान किसका ?
जं सव्वलोयसिद्धं, देहं गेहादिबाहिरं अत्थं । जोतं पिणाण मण्णदि, ण मुणदि सो णाणणामं पि ॥२४६॥
अन्वयार्थः- [जं ] जो [ देहं गेहादिबाहिरं अथं ] देह गेह आदि बाह्य पदार्थ [ सव्वलोयसिद्धं ] सर्व लोकप्रसिद्ध हैं उनको भी ज्ञान ही माने तो [ सो णाणणामपि ] वह वादी ज्ञानका नाम भी [ ण मुणदि ] नहीं जानता है ।
भावार्थ:-बाह्य पदार्थको भी ज्ञान ही माननेवाला, ज्ञानके स्वरूपको नहीं जानता है सो तो दूर ही रहो, ज्ञानका नाम भी नहीं जानता है।
अब नास्तित्ववादीके प्रति कहते हैं
अच्छीहिं पिच्छमाणो, जीवाजीवादि बहुविहं अत्यं ।
जो भणदि स्थि किंचि वि, सो झुट्ठाण महामुट्ठो ॥२५०॥
अन्वयार्थ:-[ जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं ] जो नास्तिकवादी जीव अजीव आदि बहुत प्रकारके पदार्थों को [ अच्छीहिं पिच्छमाणो ] प्रत्यक्ष नेत्रोंसे देखता हुआ भी
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