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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अब द्रव्य पर्यायोंके कथंचित् भेद कथंचित् अभेद दिखाते हैंव्वाणपज्जया, धम्मविवक्खाइ कीरए भेो । वत्थुसरूत्रेण पुणो, ण हि भेओ सक्कदे काउं ॥ २४५ ॥
अन्वयार्थः – [ दव्वाणपञ्जयाणं ] द्रव्य और पर्यायोंके [ धम्मविवक्खाइ ] धर्म धर्मीकी विवक्षासे [ भेओ कोरए ] भेद किया जाता है [ वत्थुसरूवेण पुणो ] वस्तुस्वरूप से [ भेओ काउ ण हि सकदे ] भेद करनेको समर्थ नहीं है ।
भावार्थ:- द्रव्य पर्यायके धर्म धर्मीको विवक्षासे भेद किया जाता है । द्रव्य धर्मी है, पर्याय धर्म है और वस्तुसे अभेद ही है । केई नैयायिकादि धर्म धर्मी के सर्वथा भेद मानते हैं उनका मत प्रमाण बाधित है ।
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अब द्रव्य पर्यायके सर्वथा भेद मानते हैं उनको दोष दिखाते हैं
पज्जय दव्वाण मरण से मूढ 1
जदि वत्थुदो विभेदो, at farखा सिद्धी, दोराहं पि य पावदे खियमा || २४६ ॥ अन्वयार्थः- - द्रव्य पर्यायके भेद मानता है उसको कहते हैं कि [ मूढ ] हे मूढ़ ! [ जदि ] यदि [ पञ्जयदव्वाण ] द्रव्य और पर्यायके [ वत्थदो विभेदो ] वस्तुसे भी भेद [ मण्णसे ] मानता है [ तो ] तो [ दोहं पि य ] द्रव्य और पर्याय दोनों के [ णिवेक्खा सिद्धी ] निरपेक्षा सिद्धी [ णियमा ] नियमसे [ पावदे ] प्राप्त होती है । भावार्थः — द्रव्यपर्याय भिन्न भिन्न वस्तुएँ सिद्ध होती हैं । धर्म धर्मीपणा सिद्ध नहीं होता है ।
अब जो विज्ञानको ही अद्वैत कहते हैं और बाह्य पदार्थको नहीं मानते हैं उनको दोष बताते हैं
जदि सव्वमेव गाणं, गाणारूवेहि संठिदं एक्कं । तो व किंपि विशेयं, णेयेण विणा कहं णा
||२४७ ||
अन्वयार्थः - [ जंदि सव्वमेव एक्कं णाणं ] जो सब वस्तुएँ एक ज्ञान ही हैं
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[ णाणारूवेहि संठिदं ] वह ही अनेक रूपों में स्थित है [ तो ण वि किं पि विशेयं ] यदि ऐसा माना जाय तो ज्ञेय कुछ भी सिद्ध नहीं होता है [ येण विणा कहूं णाणं ] और ज्ञेयके बिना ज्ञान कैसे सिद्ध होवे ।
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