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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पंचमहव्वयजत्ता ] जो जीव पांच महाव्रतोंसे युक्त हों [ णिच्चं धम्मे सुक्के वि संठिदा ] नित्य ही धर्मध्यान शुक्लध्यानमें स्थित रहते हों [ णिजियसयलपमाया ] और जिन्होंने निद्रा आदि सब प्रमादोंको जीत लिया हो [ उक्किट्ठा अंतरा होंति ] वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं ।
अब मध्यम अन्तरात्माको कहते हैं
सावयगुणेहिं जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होति। जिणवयणे अणुरत्ता, उवसमसीला महासत्ता ॥१६६॥
अन्वयार्थः- [ जिणवयणे अणुरत्ता ] जो जिनवचनोंमें अनुरक्त हों [ उवसमसीला ] उपशमभाव ( मन्द कषाय ) रूप जिनका स्वभाव हो [ महासत्ता ] महा पराक्रमी हों, परीषहादिकके सहन करने में दृढ़ हों, उपसर्ग आने पर प्रतिज्ञासे चलायमान नहीं होते हों ऐसे [ सावयगुणेहिं जत्ता] श्रावकके व्रत सहित तथा [पमराविरदा य मज्झिमा होंति ] प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम अंतरात्मा होते हैं ।
अब जघन्य अन्तरात्मको कहते हैं
अविरयसम्मदिट्ठी, होति जहरण जिणंदपयभत्ता । अप्पाणं णिदंता, गुणगहणे सुट्ठुअणुरत्ता ॥१७॥
अन्वयार्थ:-[ जिणंदपयभत्ता ] जो जीव जिनेन्द्र भगवान के चरणों के भक्त हैं। ( जिनेन्द्र, उनकी वाणी तथा उसके अनुसार वर्तनवाले निर्ग्रन्थ गुरु, उनकी भक्ति में तत्पर हैं ) [ अप्पाणं णिदंता ] अपने आत्माको निन्दा करते रहते हैं ( चारित्रमोहसे व्रत धारण नहीं किये जाते लेकिन उनकी भावना निरन्तर बनी हो रहती है इसलिये अपने विभाव परिणामोंकी निन्दा करते ही रहते हैं ) [ गुणगहणे सुठ्ठअणुरत्ता ] और गुणोंके ग्रहण करनेमें भलेप्रकार अनुरागी हैं ( जिनमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखते हैं उनसे अत्यन्त अनुरागरूप प्रवृत्ति करते हैं गुणोंसे अपना और परका हित जाना है इसलिये गुणोंसे अनुराग ही होता है ) ऐसे [ अविरयसम्मद्दिट्ठी ] अविरतसम्यग्दृष्टिजीव ( सम्यग्दर्शन तो जिनके पाया जाता है परन्तु चारित्रमोहकी युक्ततासे व्रत धारण नहीं कर सकते हैं ) [ जहण्णा होंति ] जघन्य अन्तरात्मा हैं । इसप्रकार तीन प्रकारके अन्तरात्मा कहे सो गुणस्थानोंकी अपेक्षासे जानना चाहिये ।
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