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लोकानुप्रेक्षा
अन्वयार्थः – [ मिच्छत्तपरिणदप्पा ] जो जीव मिथ्यात्वरूप परिणमा हो [ तिव्वकसारण सुठु आविट्ठो ] और तीव्र कषाय ( अनन्तानुबन्धी ) से अतिशय आविष्ठ अर्थात् युक्त हो इस निमित्तसे [ जीवं देहं एक्कं मण्णंतो ] जोव और देहको एक मानता हो वह जीव [ बहिरप्पा होदि ] बहिरात्मा है ।
भावार्थः – जो बाह्य परद्रव्यको आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है । ऐसी मान्यता मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषायके' होती है इसलिये वह भेदज्ञानसे रहित होता हुआ देह आदि समस्त परद्रव्यों में अहंकार ममकार युक्त होता हुआ बहिरात्मा कहलाता है ।
अब अन्तरात्माका स्वरूप तीन गाथाओं में कहते हैंजे जिवणे कुसलो, भेयं जाणंति जीवदेहाणं । रिज्जियदुट्ठट्ठमया, अन्तरअप्पा य ते तिविहा ॥१६४॥
अन्वयार्थः - [ जे जिणवयणे कुसलो ] जो जीव जिनवचनमें प्रवीण हैं [ जीवदेहाणं भेयं जाणंति ] जीव और देहके भेदको जानते हैं [ णिजियदुमया ] और जिन्होंने आठमदों को जीत लिये हैं [ अंतरअप्पा य ते तिविहा ] वे अन्तरात्मा हैं और उत्कृष्ट ( उत्तम ) मध्यम जघन्य के भेदसे तीन प्रकारके हैं । भावार्थः – जो जीव जिनवाणीका भले प्रकार से अभ्यास करके जीव और देहके स्वरूपका भिन्न भिन्न जानते हैं वे अतरात्मा हैं । उनके जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या और ऐश्वर्य ये आठ मदके कारण हैं इनमें अहंकार ममकार उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि ये परद्रव्यके संयोगजनित हैं। इनमें गर्व नहीं करते हैं, वे ( अन्तरात्मा ) तीन प्रकारके हैं ।
अब इन तीनों में उत्कृष्टको कहते हैं
पंचमहव्वयजुत्ता, धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं । णिज्जियसयलपमाया, उक्किट्ठा अन्तरा होंति ।। १६५ ।।
१ [ अनुसरण करे तो ] ।
२ [ स्वाश्रयके बल सहित ] |
३ [ अतः त्रैकालिक ज्ञान हूं ऐसी दृढ़ता होनेसे ] |
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