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लोकानुप्रेक्षा
अन्वयार्थः - [ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो वि कम्मफलं भुजदे ] जीव कर्मफलको संसार में भोगता है [ सो विभुत्ता हवइ ] इसलिये भोक्ता भी यही है और [ सोविय संसारे ] वह ही संसार में [ विविहं कम्मविवायं भुजेदि ] सुखदुःखरूप अनेक प्रकारके कर्मों के विपाकको भोगता है ।
जीवो वि हवइ पावं, अइतिव्वकषायपरिणदो णिच्चं । जीवो वि हवेइ पुराणं, उवसमभावेण संजुत्तो ॥ १६०॥
अन्वयार्थः - [ जीवो वि अतिव्यकषायपरिणदो णिच्चं पावं हवइ ] जब यह जीव अति तीव्र कषाय सहित होता है तब यह ही जोव पाप होता है और [ उवसमभावेण संजुतो ] उपशम भाव ( मन्द कषाय ) सहित होता है तब [ जीवो वि पुण्णं हवे ] यह ही जीव पुण्य होता है ।
भावार्थः— क्रोध मान माया लोभकी अति तीव्रतासे तो पाप परिणाम होते हैं और इनकी मन्दतासे पुण्य परिणाम होते हैं । इन परिणामों सहित पुण्यजीव पापजीव कहलाते हैं ।
एक ही जीव, दोनों प्रकारके परिणामों सहितको पुण्यजीव पापजीव कहते हैं । सो सिद्धान्तको अपेक्षा इसप्रकार है, सम्यक्त्व सहित जीव होवे उसकेतो तीव्रकषायों की जड़ कट जाने से पुण्यजीव कहलाता है और मिथ्यादृष्टि जीवके भेदज्ञान बिना कषायों की जड़ कटती नहीं है इसलिये बाह्य में कदाचित् उपशम परिणाम भी दिखाई दें तो भी उसको पापजीव ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये ।
* इस बारेमें श्री गोम्मटसारमें भी कहा है कि:
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जीवदुगं उत्तट्ठ जोवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा । यदसहिदावि य पावा तव्विवरिया हवंतित्ति ।। ६२२ ॥ मिच्छाइट्ठी पावा, गंताणंता य सासणगुणावि । पल्ला सखेज्जदिमा अणश्रण्णदरुदयमिच्छ्रगुणा ।। ६२३ ।।
अर्थ - जीव और अजीव पदार्थ तो पूर्व जीवसमास अधिकार में अथवा यहाँ छह द्रव्याधिकारमें कहे हैं । फिर जो सम्यक्त्व गुण सहित होवे तथा जो व्रत सहित हो उसका पुण्यजीव कहते हैं, इनसे
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