________________
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
जे इन्दिएहिं गिझं, रूवरसगंधफासपरिणामं । तं चिय पुग्गलदव्वं, अणंतगुणं जीवरासीदो॥२०७॥
अन्वयार्थ:-[ जे ] जो [ रूवरसगंधफासपरिणामं ] रूप, रस, गंध, स्पर्श परिणाम स्वरूपसे [ इंदिएहिं गिझं ] इन्द्रियोंके ग्रहण करने योग्य हैं [तं चिय पुग्गलदव्वं ] वे सब पुद्गलद्रव्य हैं [ अणतगुणं जीवरासीदो ] वे संख्यामें जीवराशिसे अनन्तगुणे द्रव्य हैं।
अब पुद्गलद्रव्यके जीवके उपकारीपनेको कहते हैं
जीवस्स बहुपयारं, उवयारं कुणदि पुग्गलं दव्वं ।
देहं च इन्दियाणि य, वाणी उस्सासणिस्सासं ॥२०८॥
अन्वयार्थः-[ पुग्गलं दव्यं ] पुद्गल द्रव्य [ जीवस्स ] जीवके [ देहं च इंदियाणि य ] देह, इन्द्रिय [ वाणी उस्सासणिस्सासं] वचन उस्वास, निस्वास [बहुपयारं उवयारं कुणदि ] बहुत प्रकार उपकार करता है ।
भावार्थ:-संसारी जीवके देहादिक पुद्गल द्रव्यसे रचे गये हैं इनसे जोवका जीवितव्य है यह उपकार है ।*
अण्णं पि एवमाई, उवयारं कुणदि जाव संसारं ।
मोह अणाणमयं पि य, परिणामं कुणदि जीवस्स ।।२०६॥
अन्वयार्थः-[ जीवस्स ] पुद्गल द्रव्य जीवके [अण्णं पि एवमाई] पूर्वोक्तको आदि लेकर अन्य भी [ उवयारं कुणदि ] उपकार करता है [ जाय संसारं ] जब तक इस जीवको संसार है तब तक [मोह अणाणमयं पि य परिणामं कुणदि] मोह परिणाम ( पर द्रव्योंसे ममत्त्व परिणाम ) अज्ञानमयो परिणाम ऐसे सुख दुःख, जीवन, मरण आदि अनेक प्रकार करता है । यहां उपकार शब्दका अर्थ जब उपादान कार्य करै तब संयोगको निमित्त कारणपनेका आरोप है ऐसा सर्वत्र समझना चाहिये ।
* [ अर्थात् निमित्तमात्र है ] ।
[संयोगदृष्टि उपचरित कथनका प्रयोजन अनुपचार-उपादानका व्यंजक बताने वाला
ही है ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org