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लोकानुप्रेक्षा अब चार्वाकमती ज्ञानको पृथ्वी आदिका विकार मानते हैं उसका निषेध करते हैं
णाणं भूयवियारं, जो मण्णदि सो वि भूदगहिदव्वो। जीवेण विणा णाणं, किं केण वि दीसए कत्थ ॥१८१॥
अन्वयार्थ:-[ जो ] जो चार्वाकमती [ णाणं भूयवियारं मण्णदि ] ज्ञानको . पृथ्वी आदि पंच भूतोंका विकार मानता है [ सो वि भूदगहिदव्यो ] वह चार्वाक, भूत ( पिशाच ) द्वारा ग्रहण किया हुआ है [ जीवेण विणा णाणं ] क्योंकि बिना ज्ञानके जीव [ किं केण वि कत्थ दीसए ] क्या किसीसे कहीं देखा जाता है ? अर्थात् कहीं भी ऐसा दिखाई नहीं देता है ।
अब इसको दूषण ( दोष ) बताते हैंके सच्चेयण पच्चपखं, जो जीवं णेय मण्णदे मूढी।
सो जीवं ण मुणंतो, जीवाभावं कहं कुणदि ॥१८२।।
अन्वयार्थः--[ सच्चेयण पञ्चक्खं ] यह जीव सत्रूप और चैतन्यस्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध है [ जो जीवं णेय मण्णदे ] जो चार्वाक जीवको ऐसा नहीं मानता है [ सो मूढो ] वह मूर्ख है [ जो जीवं ण मुणंतो ] और जो जीवको नहीं जानता है नहीं मानता है तो वह [ जीवाभावं कहं कुणदि ] जीवका अभाव कैसे करता है।
भावार्थ:-जो जीवको जानता ही नहीं है वह उसका अभाव भी नहीं कह सकता है । अभावका कहनेवाला भी तो जीव ही है क्योंकि सद्भाव बिना अभाव कहा नहीं जा सकता।
अब इसी मतवालेको युक्तिसे जीवका सद्भाव दिखाते हैं
जदि ण य हवेदि जीओ, ता को वेदेदि सुक्खदुक्खाणि । इन्दियविसया सब्बे, को वा जाणदि विसेसेण ॥१८३॥
अन्वयार्थः--[ जदि जीओ ण य हवेदि ] यदि जीव नहीं होवे तो [ सुक्खदुक्खाणि ] अपने सुखदुःखको [ को वेदेदि ] कौन जानता है और [ ई दियविसया सव्वे ]
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