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कार्तिकेयानुप्रेक्षा छह हुए । सत्रह और छह मिलाने से तेईस हुए । ये पर्याप्त, अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे उनहत्तर हुए। इस तरह सोलह और उनहत्तर मिलानेसे कुल पिच्यासी भेद होते हैं ।
अब मनुष्योंके भेद कहते हैं
अज्जव मिलेच्छखंडे, भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु । मणुआ हवंति दुविहा, णिवित्ति अपुण्णगा पुण्णा ॥१३२॥
अन्वयार्थः- [ मणुआ ] मनुष्य [ अजव मिलेच्छखंडै ] आर्यखंड में, म्लेच्छखंडमें [ भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु ] भोगभूमिमें तथा कुभोगभूमिमें [ हवंति ] हैं ये चारों ही [ पुण्णा ] पर्याप्त [णिबित्ति अपुण्णगा ] और निवृत्ति अपर्याप्तके भेदसे [ दुविहा ] दो दो प्रकारके होकर सब आठ भेद होते हैं ।
सम्मुच्छणा मणुस्सा, अज्जवखंडेसु होंति णियमेण । ते पुण लद्धि अपुण्णा, णारय देवा वि ते दुविहा ॥१३३॥
अन्वयार्थः-[ सम्मुच्छणा मणुस्सा ] सम्मूर्छन मनुष्य [ अज्जवखंडेसु ] आर्यखंडमें ही [ णियमेण ] नियमसे [ होति ] होते हैं [ ते पुण लद्धिअपुण्णा ] वे लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं [ णारय देवा वि ते दुविहा ] नारकी तथा देव, पर्याप्त और नित्यपर्याप्तके भेदसे चार प्रकारके हैं ।
भावार्थः-इस तरह तिर्यंचोंके पिच्यासी भेद, मनुष्योंके नौ और नारकी तथा देवोंके चार, सब मिलाकर अठयाणवे भेद हुए । बहुतोंको समानतासे एकत्रित करके कहने ( संग्रह करके संक्षेपसे कहने ) को समास कहते हैं । यहां पर बहुतसे जीवोंको संक्षेपसे कहनेको जीव समास जानना चाहिये ।
इस तरह जोवसमासका वर्णन किया । अब पर्याप्तिका वर्णन करते हैं
आहारसरीरिदियणिस्सासुस्सासभास-मणसाणं । परिणइ वावारेसु य, जाओ छच्चेव सत्तीओ ॥१३४।।
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