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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
दुवा होंति ] स भी दो प्रकारके हैं [ वितिचउरक्खा तहेव पंचक्खा ] १ विकलत्रय ( दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, ) तथा २ पंचेन्द्रिय |
भावार्थ:- जिस वनस्पति के आश्रित निगोद पाई जाती है वह साधारण है इसको सप्रतिष्ठित भी कहते हैं और जिसके आश्रित निगोद नहीं पाई जाती है वह प्रत्येक है इसको अप्रतिष्ठित भी कहते हैं । दोइन्द्रिय आदिको त्रस कहते हैं ।
अब पंचेन्द्रियोंके भेद कहते हैं
पंचक्खा वियतिविहा, जलथलप्रायासगामिणो तिरिया । पत्तेयं ते दुबिहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य
।। १२६ ।।
गूढसिर संधिपव्वं समभंग महीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीर, तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ २ ॥
अन्वयार्थ:-- [ गूढ सिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं ] जिन वनस्पतियोंके शिरा ( तोरई आदि में ) संधि ( खांपों के चिह्न खरबूजे आदि में ) पर्व ( पंगोली गन्ने आदिमें ) प्रगट न हों और जिनमें तन्तु पैदा न हुआ हो ( भिंडी आदिमें ) तथा जो काटने पर फिर बढ़ जांय [साहारणं सरीरं ] त्रे प्रतिष्ठित वनस्पति हैं [ तव्विवरीयं च पत्तेयं ] इनसे उलटी अप्रतिष्ठित समझनी चाहिये ||२||
मूले कंदे छल्ली, पवालसालदल कुसुमफलबीजे ।
समभंगे सदिगंता, असमे सदि होंति पत्तेया ॥३॥
श्रन्वयार्थ:-[ मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलबीजे ] जिन वनस्पतियोंके मूल (हल्दी, अदरक आदि ) कन्द ( सूरण आदि ) छाल, नई कोंपल, टहनी, फूल, फल तथा, बीज [ समभंगे सदि ता ] तोड़ने पर बराबर टूट जाँय वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । [ असमे सदि होंति पत्तेया ] तथा जो बराबर न टूटें वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं ॥३॥
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कंदस्स व मूलस्स व, सालाखंधस्स वा वि बहुलतरी । छल्ली सा णंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥४॥
अन्वयार्थ:- [ कंदस्स व मूलस्स व सालाखंधस्स वा वि बहुलतरी छल्ली सा णंतजिया ] जिन वनस्पतियोंके कन्द, मूल, टहनी, स्कन्धकी छाल मोटी होती है वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक ( अनन्त जीवोंका जानना [ तु तणुकदरी पत्तेयजिया ] और जिनकी छाल पतली होती है वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक मानना चाहिये ।
स्थान
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