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लोकानुप्रेक्षा अब पृथ्वी आदिकी संख्या कहते हैं
पुढवीतोयसरीरा, पत्तेया वि य पइट्ठिया इयरा ।
होति असंखा सेढी, पुण्णापुण्णा यत ह य तसा॥१४८।। ___ अन्वयार्थः- [ पुढवीतोयसरीरा ] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक [ पत्तेया वि य पइट्रिया इयरा ] प्रत्येक वनस्पतिकायिक सप्रतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित [ तह य तसा ] तथा बस ये सब [ पुण्णापुण्णा ] पर्याप्त अपर्याप्त जीव हैं [ असंखा सेढी होंति ] वे जुदे जुदे . असंख्यात जगतश्रेणीप्रमाण हैं ।
वादरद्धि अपुण्णा, असंखलोया हवंति पत्तेया। तह य अपुण्णा सुहुमा, पुण्णा वि य संखगुणगणिया॥१४६।।
अन्वयार्थः-[ परोया ] प्रत्येक वनस्पति तथा [ वादरलद्धिअपुण्णा ] वादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव [ असंखलोया हवंति ] असंख्यात लोकप्रमाण हैं [तह य अपुण्णा सुहुमा ] इसी तहर सूक्ष्मअपर्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण हैं [पुण्णा वि य संखगुणगणिया] और सूक्ष्मपर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं ।
सिद्धा संति अणंता, सिद्धाहितो अणंतगुणगणिया।
होंति णिगोदा जीवा, भाग अणंता अभव्वा य ॥१५०॥
अन्वयार्थः- [ सिद्धा अणंता संति ] सिद्ध जीव अनन्त हैं [ सिद्धाहितो अणंतगुणगणिया णिगोदा जीवा होति ] सिद्धोंसे अनन्तगुणे निगोदिया जीव हैं [ भाग अणंता अभव्या य ] और सिद्धोंके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं ।
सम्मुच्छिमा हुमणुया, सेढियसंखिज्ज भागमित्ता हु। गब्भजमणुया सव्वे, संखिज्जा होति णियमेण ॥१५१॥
अन्वयार्थः-[ सम्मुच्छिा हु मणुया ] सम्मूर्छन मनुष्य [ सेढियसंखिज भागामिचा हु] जगतश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं [ गब्भजमणुया सव्वे ] और सब गर्भज मनुष्य [णियमेण संखिज्जा होंति ] नियमसे संख्यात ही हैं।
अब सान्तर निरन्तरको कहते हैंदेवा वि णारया वि य, लद्धियपुण्णा हु संतरा होति । सम्मुच्छिया वि मणुया, सेसा सव्वे णिरंतरया ।।१५२॥
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