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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [जो ] जो मुनि [ दुव्वयणं] दुर्वचन [ सहदि ] सहता है [ साहम्मियहीलणं ] साधर्मी जो अन्य मुनि आदिक उनसे किये गए अनादरको सहता है [च उवसग्गं ] तथा देवादिकोंसे किये गये उपसर्गको सहता है [कसायरिउ ] कषायरूप बैरीको [ जिणऊण ] जीतकर जो ऐसे करता है [ तस्स ] उसके [ विउला ] विपुल ( बड़ी ) [ णिजरा ] निर्जरा [ हवे ] होती है ।
भावार्थ:-कोई कुवचन कहे तो उससे कषाय न करे तथा अपनेको अतीचारादिक ( दोष ) लगे तब आचार्यादि कठोर वचन कह कर प्रायश्चित्त देवें, निरादर करें तो उसको कषायरहित होकर सहे तथा कोई उपसर्ग करे तो उससे कषाय न करे उसके बड़ी निर्जरा होती है ।
रिणमोयणं व मण्णइ, जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं । पावफलं मे एदं, मया वि जं संचिदं पुव्वं ॥११०॥
अन्वयार्थः- [जो] जो मुनि [ उवसग्गं ] उपसर्गको तथा [ तिव्वं ] तीव्र [ परीसह ] परिषहको [ रिणमोयणं व मण्णइ ] ऋण ( कर्ज ) की तरह मानता है कि [एदे ] ये ( उपसर्ग और परिषह ) [ मया वि जं पुव्वं संचिदं ] मेरे द्वारा पूर्वजन्ममें संचित किये गये [ पावफलं ] पापकर्मों का फल है सो भोगना चाहिए इस समय व्याकुल नहीं होना चाहिए।
भावार्थ:-जैसे किसीको ऋणके रुपये देने होवे तो जब वह मांगे तब देना पड़े उसमें व्याकुलता कैसी ? ऐसा विचार कर जो उपसर्ग और परिषहको शान्त परिणामोंसे सह लेता है उसके बहुत निर्जरा होती है ।
जो चिंतेइ सरीरं, ममत्तजणयं विणस्सरं असुई ।
दंसणणाणचरितं, सुहजणयं णिम्मलं णिच्चं ॥१११॥ अन्वयार्थः-[ जो] जो मुनि [ सरीरं ] शरीरको [ ममत्वजणयं ] ममत्व ( मोह ) को उत्पन्न करानेवाला [विणस्सरं] विनाशीक [ असुई ] तथा अपवित्र [चिंतेइ ] मानता है और [ सुहजणयं ] सुखको उत्पन्न करनेवाले [णिम्मलं ] निर्मल [णिच्चं ] तथा नित्य [दसणणाणचरित्वं ] दर्शनज्ञान-चारित्ररूपो आत्माका [चिंतेइ] चितवन ( ध्यान ) करता है उसके बहुत निर्जरा होती है।
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