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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ सव्वेसि कम्माणं ] समस्त ज्ञानावरणादिक अष्टकर्मोंकी [ सत्तिविवाओ ] शक्ति ( फल देनेकी सामर्थ्य ) विपाक ( पकना-उदय होना ) [ अणुभाओ] अनुभाग [ हवेइ ] कहलाता है [ तदणंतरं तु सडणं ] उदय आनेके अनन्तर ही झड़ जानेको [ कम्माणं णिजरा जाण ] कर्मोंकी निर्जरा जानना चाहिये ।
भावार्थः-* कर्मोके उदयमें आकर झड़ जानेको निर्जरा कहते हैं । अब कहते हैं कि यह निर्जरा दो प्रकारकी है
सा पुण दुविहा णेया, सकालपत्ता तवेण कयमाणा । चादुगदीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥१०४॥
अन्वयार्थः-[ सा पुण दुविहा णेया ] वह पहिले कही हुई निर्जरा दो प्रकारको है [ सकालपचा ] एक तो स्वकाल प्राप्त [ तवेण कयमाणा ] दूसरी तप द्वारा की गई [ चादुगदीणं पढमा ] उनमें पहिली स्वकालप्राप्त निर्जरा तो चारों ही गतिके जीवोंके होती है [ वयजुत्ताणं हवे बिदिया] व्रतसहित जीवोंके दूसरी तप द्वारा की गई होती है ।
भावार्थ:-निर्जरा दो प्रकार है । कर्म अपनी स्थितिको पूर्ण कर उदय होकर रस देकर खिर जाते हैं सो सविपाक निर्जरा कहलाती है, यह निर्जरा तो सब ही जीवोंके होती है और तपके कारण कर्म स्थिति पूर्ण हुए बिना ही खिर जाते हैं वह अविपाक निर्जरा कहलाती है, यह व्रतधारियोंके होती है।
अब निर्जरा किससे बढ़ती हुई होती है सो कहते हैंउवसमभावतवाणं, जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं । तह तह णिज्जरवड्डी, विसेसदो धम्मसुक्कादो ॥१०५॥
अन्वयार्थः-[ साहूणं ] मुनियोंके [ जह जह ] जैसे जैसे [ उवसमभावतवाणं ] उपशमभाव तथा तपकी [ वड्ढी हवेइ ] बढ़वारी होती है [ तह तह गिजर वड्ढी ] वैसे वैसे ही निजराको बढ़वारी होती है [ धम्मसुक्कादो] धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे [ विसेसदो ] विशेषतासे बढ़वारी होती है ।
[ निश्चयसे स्वाश्रयके द्वारा आंशिक शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्धिकी हानिको निर्जरा कही है ] ।
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