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लोकानुप्रेक्षा
अब लोकके जीवादिक छह द्रव्योंका वर्णन करेंगे । पहिले जीवद्रव्यको
कहते हैं
एइंदियेहिं भरिदो, पंचपयारेहिं सव्वदो लोश्रो । तसनाडीए वि तसा, ण बाहिरा होंति सव्वत्थ ॥ १२२ ॥ अन्वयार्थः -- [ लोओ ] यह लोक [ पंचपयारेहिं ] पृथ्वी, अप् तेज, वायु, वनस्पति पंचप्रकार कायके धारक [ एइंदियेहिं ] एकेन्द्रिय जीवोंसे [ सव्वदो ] सब जगह [ भरिदो ] भरा हुआ है [ तसनाडीए वि तसा ] त्रसजीव त्रसनाड़ी में हो है [ सव्वत्थ बाहिरा ण होंति ] बाहर नहीं हैं ।
भावार्थ:-- जीव द्रव्य उपयोग लक्षणवाला समान परिणामकी अपेक्षा सामान्य रूपसे एक है । तथापि वस्तु भिन्न प्रदेश से अपने अपने स्वरूपको लिये भिन्न भिन्न अनन्त हैं । उनमें जो एकेन्द्रिय हैं वे तो सब लोकमें हैं और दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय स हैं वे सनाड़ी में ही हैं ।
अब बादर सूक्ष्मादि भेद कहते हैं ।
पुराणावि पुराणावि य, थूला जीवा हवंति साहारा । छविहा सुहमा जीवा, लोयायासे वि सव्वत्थ ॥ १२३ ॥
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अन्वयार्थः - [ साहारा ] आधारसहित [ जीवा ] जीव [ धूला ] स्थूल ( बादर ) [ हवंति ] होते हैं [ पुण्णा त्रि अपुण्णा वि य ] वे पर्याप्त हैं और अपर्याप्त भी हैं [ लोयायासे वि सव्वत्थ सुहमा जीवा छविहा ] लोकाकाशमें सब जगह अन्य आधाररहित हैं वे सूक्ष्म जीव हैं और छह प्रकार के हैं ।
अब बादर सूक्ष्म कौन कौन हैं सो कहते हैं
पुढवीजल ग्गिवाऊ, चत्तारि वि होंति बायरा सुहमा । सादारणपत्तेया, वणफदी पंचमा दुविहा ॥ १२४॥
अन्वयार्थः - [ पुढवीजलग्गिवाऊ चचारि वि बायरा सुहमा होति ] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये चार तो बादर भी होते हैं तथा सूक्ष्म भी होते हैं [ पंचमा वणफदी साहारणपत्रोया दुविहा ] पांचवीं वनस्पति साधारण और प्रत्येकके भेदसे दो प्रकारकी है । * [ सब लोक में पृथ्वीकायादिक स्थूल तथा सकायिक नहीं हैं ] ।
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