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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अन्वयार्थः-[ सव्यायासमणतं ] आकाश द्रव्यका क्षेत्र ( प्रदेश ) अनन्त है [ तस्स य बहुमज्झसंठिओ लोओ ] उसके बहुमध्यदेश ( ठीक बीचका क्षेत्र ) में स्थित लोक है [ सो केण वि णेय कओ] वह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है [ण य धरिओ हरिहरादीहिं ] तथा किसी हरिहरादिके द्वारा धारण ( रक्षा ) किया हुआ नहीं है।
___ भावार्थः-केई अन्यमतमें कहते हैं कि लोककी रचना ब्रह्मा करता है, नारायण ( विष्णु ) रक्षा करता है, शिव संहार ( नाश ) करता है तथा कछुआ और शेषनाग इसको धारण किये हुए हैं, जब प्रलय होती है तब सब शून्य हो जाता है, ब्रह्मकी सत्ता मात्र रह जाती है । फिर ब्रह्मको सत्तामेंसे सृष्टिकी रचना होत इत्यादि अनेक कल्पित कहते हैं उस सबका निषेध इस गाथासे जान लेना चाहिये । लोक किसीके द्वारा बनाया हुआ नहीं है, धारण किया हुआ नहीं है, किसी के द्वारा इसका नाश भी नहीं होता है जैसा है वैसा ही सर्वज्ञने देखा है वह ही वस्तुस्वरूप है।
अण्णोण्णपवेसेण य, दव्वाणं अच्छणं भवे लोओ। दव्वाणं णिच्चत्तो, लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं ॥११६॥
अन्वयार्थः- [दव्याणं अच्छणं ] जीवादिक द्रव्योंका [ अण्णोणपवेसेण य ] परस्पर एक क्षेत्रावगाह प्रवेश ( मिलापरूप अवस्थान ) [ लोओ ] लोक [ भवे ] है [ दव्वाणं णिच्चत्तो ] द्रव्य हैं वे नित्य हैं [ लोयस्स वि णिच्चत्तं मुणह ] इसलिये लोक भी नित्य है ऐसा जानना ।
भावार्थ:-* छह द्रव्योंके समुदायको लोक कहते हैं। हरेक द्रव्य+ नित्य हैं इसलिये लोक भी नित्य ही है ।
अब यदि कोई तर्क करे कि जो नित्य है तो फिर उत्पत्ति व नाश किसका होता है ? उसका समाधान करने के लिये गाथा कहते हैं
परिणामसहावादो, पडिसमयं परिणमंति दव्वाणि ।
तेसिं परिणामादो, लोयस्स वि मुणह परिणामं ॥११७॥ *[ छह जातिके ]। +[ सामान्यविशेषरूप ] ।
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