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निर्जर।नुप्रेक्षा भावार्थ:-शरीरको मोहका कारण, अस्थिर तथा अशुचि माने तब इसकी चिन्ता नहीं रहती। अपने स्वरूप में लगे तब निर्जरा होवे ही होवे ।
अप्पाणं जो जिंदइ, गुणवंताणं करेदि बहुमाणं ।
मणई दियाण विजई, स सरूवपरायणो होउ ॥११२॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो साधु [ अप्पाणं जिंदइ ] अपने किए हुए दुष्कृतको निंदा करता है [ गुणवंताणं बहुमाणं करेदि ] गुणवान् पुरुषोंका प्रत्यक्ष परोक्ष बड़ा आदर करता है [ मणइंदियाण विजई ] अपने मन व इन्द्रियोंको जीतनेवाला होता है [ स सरूवपरायणो होउ ] वह अपने स्वरूप में तत्पर होता है। उसीके बहुत निर्जरा होती है।
__ भावार्थ:-* मिथ्यात्वादि दोषों का निरादर करे तब वे क्यों रहें ? नष्ट हो हो जावें।
तस्त य सहलो जम्मो, तस्स वि पावस्स णिजरा होदि । तस्स वि पुण्णं वड्ढदि, तस्स वि सोक्खं परं होदि ॥११३॥
अन्वयार्थ:-जो साधू ऐसे ( पहिले कहे अनुसार ) निर्जराके कारणों में प्रवृत्ति करता है [ तस्स य सहलो जम्मो ] उसीका जन्म सफल है [ तस्स वि पावस्स णिजरा होदि ] उसहीके पापकर्मकी निर्जरा होती है [ तस्स वि पुण्णं वड्ढदि ] उसहीके पुण्यकर्मका अनुभाग बढ़ता है [ तस्स वि सोक्खं परं होदि ] और उसीको उत्कृष्ट सुख ( मोक्ष ) प्राप्त होता है।
___ भावार्थ:-जो निर्जराके कारणोंमें प्रवृत्ति करता है उसके मिथ्यात्वादि पापोंका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि होती है और वह ही ४ स्वर्गादिकके सुखोंको भोगकर +मोक्षको प्राप्त होता है। अब उत्कृष्ट निर्जरा कहकर उसके कथनको पूर्ण करते हैं
जो समसोक्खणिलीणो, वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई, तस्स हवे णिजरा परमा ॥११४॥
* [निज शुद्धात्माका ही आदर द्वारा] । - [परम्परा] । + [पूर्ण स्वाश्रय द्वारा] ।
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