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निर्जरानुप्रेक्षा * दोहा
गुप्ति समिति वृष भावना, जयन परीसहकार |
चारित धारै संग तजि, सो मुनि संवरधार ||८||
इति संवरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥८॥
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निर्जरानुप्रेक्षा
वारसविहेण तवसा, गियाणरहियस्स णिज्जरा होदि । वेगभावणादो, गिरहंकारस्स गाणिस्स ॥ १०२ ॥
अन्वयार्थः - [ नियाणरहियस्स ] निदान ( इन्द्रियविषयोंकी इच्छा ) रहित [ णिरहंकारस्स ] अहंकार ( अभिमान ) रहित [ णाणिस्स ] ज्ञानीके [वारसविण तवसा ] बारह प्रकारके तपसे तथा [वेरग्गभावणादो] वैराग्यभावना ( संसार देहभोग से विरक्त परिणाम ) से [ णिञ्जरा होदि ] निर्जरा होती है ।
भावार्थ : - जो ज्ञानसहित तप करता है उसके तपसे निर्जरा होती है । अज्ञानी विपर्यय तप करता है उसमें हिंसादिक दोष होते हैं, ऐसे तपसे तो उलटे कर्मका बन्ध ही होता है । तप करके मद करता है, दूसरेको न्यून ( हीन ) गिनता है, कोई पूजादिक ( सत्कार विशेष ) नहीं करता है तो उससे क्रोध करता है ऐसे तपसे बन्ध हो होता । गर्वरहित तपसे निर्जरा होती है । जो तप करके इस लोक या परलोक में ख्याति, लाभ, पूजा और इन्द्रियोंके विषयभोग चाहता है उसके बन्ध हो होता है । निदान रहित तपसे निर्जरा होती है । जो संसार देहभोग में आसक्त होकर तप करता है उसका आशय ( हृदय ) शुद्ध नहीं होता है उसके निर्जरा नहीं होती है । वैराग्यभावना से ही निर्जरा होती है ऐसा जानना चाहिये ।
अब निर्जराका स्वरूप कहते हैं
सव्वेसि कम्माणं, सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाश्रो । तद्ांतरं तु सडणं, कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १०३ ॥
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