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आस्रवानुप्रेक्षा अशुभनाम ये चार प्रकृतियें पापरूप हैं। उनके कारण आस्रव भी दो प्रकारके हैं । मंदकषायरूप परिणाम तो पुण्यास्रव हैं और तीव्र कषायरूप परिणाम पापास्रव हैं ।
अब मन्द तीवकषायको प्रगट दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं--
सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुजणे वि खमकरणं ।
सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिट्ठता ॥१॥ अन्वयार्थः-[ सव्वत्थ वि पियवयणं ] १ सब जगह शत्रु तथा मित्र आदिमें तो प्रिय हितरूप वचन [ दुव्बयणे दुजणे वि खमकरणं ] २ दुर्वचन सुनकर दुर्जन में भी क्षमा करना [ सव्वेसिं गुणगहणं ] ३ सब जीवोंके गुण ही ग्रहण करना [ मंदकसायाण दिट्ठता ] ये मन्दकषायके दृष्टान्त हैं ।
अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलतं ।
वेरधरणं च सुइरं, तिव्वकसायाण लिंगाणि ॥१२॥ अन्वयार्थः-[ अप्पपसंसण करणं ] १ अपनी प्रशंसा करना [ पुज्जेसु वि दोसगहणसील ] २ पूज्य पुरुषों में भी दोष ग्रहण करनेका स्वभाव [च सुइरं वेरधरणं ] ३ और बहुत समय तक बैर धारण करना [ तिव्वकसायाण लिंगाणि ] ये तीव्रकषायके चिह्न हैं।
अब कहते हैं कि ऐसे जीवके आस्रवका चितवन निष्फल है-- एवं जाणंतो वि हु, परिचयणीये वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा, सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥१३॥
अन्वयार्थः-[एवं जाणतो वि हु] इस प्रकारसे प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ परिचयणीये वि जो ण परिहरइ ] जो त्यागने योग्य परिणामोंको नही छोड़ता है [ तस्स ] उसके [ सव्वा वि ] सब ही [ आसवाणुवेक्खा ] आस्रवका चितवन [णिरत्थया होदि ] निरर्थक है । कार्यकारी नहीं होता।
भावार्थ:-आस्रवानुप्रेक्षाको चिन्तवन करके पहिले तो ( १ ) *तोवकषाय छोड़ना चाहिये फिर ( २ ) - शुद्ध आत्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये, ( ३ ) सब कषाय छोड़ने चाहिये तब तो यह चितवन सफल है केवल वार्ता करना मात्र ही सफल नहीं है।
* [कालिक अकषाय ज्ञायकके आश्रय द्वारा ही] ।: [स्वरूपके उग्र आलम्बन द्वारा] ।
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