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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
हैं उसको ईयपथ आस्रव कहते हैं । जो पुद्गल वर्गणा कर्मरूप परिणमती है उसको द्रव्यास्रव कहते हैं और जीवके प्रदेश चंचल होते हैं उसको भावास्रव कहते हैं । अब मोहके उदयसहित आस्रव हैं ऐसा विशेषरूपसे कहते हैं -- मोहविवागवसादो, जे परिणामा हवंति जीवस्स ।
सवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अय-विहा ॥ ८६ ॥
अन्वयार्थः - [ मोहविवागवसादो ] मोहके उदयसे [ जे परिणामा ] जो परिणाम [ जीवस्स ] इस जीवके [ हवंति ] होते हैं [ ते आसवा ] वे ही आस्रव हैं [ मुणिञ्जसु ] हे भव्य ! तू प्रत्यक्षरूपसे ऐसे जान । [ मिच्छताई अणेयविहा ] वे परिणाम मिथ्यात्वको आदि लेकर अनेक प्रकारके हैं ।
भावार्थ:- कर्मबन्धके कारण आस्रव हैं । वे मिथ्यात्व अविरत, प्रमाद, कषाय और योगके भेदसे पांच प्रकारके हैं । उनमें स्थिति अनुभागरूप बन्धके कारण मिथ्यात्वादिक चार ही हैं सो ये मोहके उदयसे होते हैं और जो योग हैं वे समयमात्र बन्धको करते हैं, कुछ भी स्थिति अनुभागको नहीं करते हैं इसलिये बन्धके कारण में प्रधान नहीं हैं ।
अब पुण्यपापके भेदसे आसवको दो प्रकारका कहते हैं-
कम्मं पुराणं पावं, हेउ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया अच्छा हु ||०||
अन्वयार्थः - [ कम्मं पुण्णं पावं ] कर्म पुण्य, पापके भेदसे दो प्रकारका है [ च तेर्सि हेउ सच्छिदरा होंति ] और उनके कारण भी सत् ( प्रशस्त ) इतर ( अप्रशस्त ) दो ही होते हैं [ मंदकसाया सच्छा ] उनमें मन्दकषाय परिणाम तो प्रशस्त ( शुभ ) हैं [ तिव्वकसाया असच्छाहु ] और तीव्र कषाय परिणाम अप्रशस्त (अशुभ) हैं ।
भावार्थ:- सातावेदनीय, शुभ आयु, उच्च गौत्र और शुभ नाम ये चार प्रकृतियें तो पुण्यरूप हैं बाकी चार घातियाकर्म असातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र और
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