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कार्तिकेयानुप्रेक्षा एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो ।
हेयं ति मण्णमाणो, आसव अणुपेहणं तस्स ।।६४॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ उवसमे लीणो ] उपशम परिणामोंमें ( वीतराग भावोंमें ) लीन होकर [एदे] पे पहिले कहे अनुसार [ मोहयभावा ] मोहसे उत्पन्न हुए मिथ्यात्वादिक परिणामोंको [ हेयं ति मण्णमाणो ] हेय ( त्यागने योग्य ) मानता हुआ [ परिवज्जेइ ] छोड़ता है [ तस्स ] उसके [ आसव अणुपेहणं ] आस्रवानुप्रेक्षा होती है।
* दोहा के आस्रव पंचप्रकारकू, चिंत4 तजै विकार । ते पार्दै निजरूपकू', यहै भावना सार ॥७॥ -:: इति आस्रवानुप्रेक्षा समाप्ता ॥७॥::
संवरानुप्रेक्षा सम्मत्तं देसवयं, महव्वयं तह जो कसायाणां ।
एदे संवरणामा, जोगाभावो तहा चेव ॥६५॥ अन्वयार्थः-[ सम्मत् ] सम्यक्त्व [ देशवयं ] देशवत [ महव्वयं ] महाव्रत [ तह ] तथा [ कसायाणं ] कषायोंका [जओ ] जीतना [जोगाभावो तहा चेव ] तथा योगोंका अभाव [ एदे संवरणामा ] ये संवरके नाम हैं ।
___ भावार्थः-पहिले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगरूप पांच प्रकारका आस्रव कहा था, उनका * अनुक्रमसे रोकना ही संवर है । सो कैसे ? मिथ्यात्वका अभाव तो चतुर्थगुणस्थानमें हुआ वहां अविरतका संवर हुआ । अविरतका अभाव एक देश तो देशविरतमें हुआ और सर्वदेश प्रमत्तगुणस्थानमें हुआ वहां अविरतका संवर हुआ । अप्रमत्त गुणस्थान में प्रमादका अभाव हुआ वहां
के [ स्वबल द्वारा ] ।
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