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अशुचित्वानुप्रेक्षा
अशुचित्वानुप्रेक्षा सयलकुहियाण पिंडं, किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं ।
मलमुत्ताणं य गेहं, देहं जाणेहि असुइमयं ॥३॥
अन्वयार्थ:-हे भव्य ! तू [ देहं ] इस देहको [ असुइमयं] अपवित्रमयी [ जाणेहि ] जान । कैसा है देह ? [ सयलकुहियाण पिंडं ] १ सकल ( सब ) कुत्सित (निंदनीय) पदार्थोंका पिंड (समूह) है [ किमिकुलकलियं] २ कृमि ( पेटमें रहनेवाले लट आदि ) तथा अनेकप्रकारके निगोदादिक जीवोंसे भरा है [ अउव्वदुग्गंधं ] ३ अत्यन्त दुर्गन्धमय है [ मलमुत्ताणं य गेहं ] ४ जो मलमूत्रका घर है।
भावार्थः-इस शरीरको सब अपवित्र वस्तुओंका समूह जानना चाहिये । *
अब कहते हैं कि यह देह अन्य सुगन्धित वस्तुओंको भी अपने संयोगसे दुर्गधित करता है
सुट्ठ पवित्त दवं, सरस-सुगंधं मणोहरं जं पि ।
देह-णिहित जाय दि, घिणावणं सुट्ठु-दुग्गंधं ॥८४॥ अन्वयार्थः-[ देहणिहित्तं ] इस शरीरमें लगाये गये [ सुट्ठपवित्वं ] अत्यन्त पवित्र [ सरससुगंधं ] सरस और सुगन्धित [ मणोहरं जं पि ] मनको हरनेवाले [ दव्वं ] द्रव्य भी [ घिणावणं ] घिनावने [ सुट्ठदुग्गंधं ] तथा अत्यन्त दुर्गन्धित [ जायदि ] हो जाते हैं।
भावार्थ:-इस शरीरके चन्दन, कपूर आदि ( सुगन्धित पदार्थ ) लगानेसे दुर्गंधित हो जाते हैं । रससहित उत्तम मिष्ठान्नादि खिलानेसे मलादिकरूप परिणम जाते हैं । अन्य भी वस्तुएं इस शरोरके स्पर्शसे अस्पृश्य हो जाती हैं ।
* [ मिथ्यात्वादि तथा शुभाशुभ भाव भी अचेतन-अनात्मा होनेसे अपवित्र और चेतनस्वरूपसे सदा भिन्न हो जानो।
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