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अन्यत्वानुप्रेक्षा
* दोहा *
एक जीव परजाय बहु, धारे स्वपर निदान ।
पर तजि आपा जानिके, करौ भव्य कल्यान || ४ || -:: इति एकत्वानुप्रेक्षा ÷ समाप्ता ::
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अन्यत्वानुप्रेक्षा
अरणं देहं गिहृदि, जाणी अण्णा य होदि कम्मादो । अणं होदि कलत्तं, अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥ ८० ॥ अन्वयार्थः- -यह जीव संसार में [ देहं गिहृदि ] देहको ग्रहण करता है [ अण्णं ] सो अपने से अन्य ( भिन्न ) है [ य ] और [ जणणी अण्णा ] माता भी अन्य है [ कलत्तं अण्णं होदि ] स्त्री भी अन्य होती है [ पुतो वि य अण्णो जायदे ] पुत्र भी अन्य ही उत्पन्न होता है [ कम्मादो होदि ] ये सब कर्म संयोग से होते हैं ।
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÷ [ सभी तीर्थंकर अपने दीक्षा कल्याणकके समय यह पावन - बारह भावना भाते हैं वह कैसी होगी ? श्री समयसारजी शास्त्रमें गा० ३ द्वारा “एकत्व निश्चय गत समय, सर्वत्र सुन्दर लोकमें" पश्चात् गाथा ४ में उस एकत्वकी असुलभता दिखाकर गाथा ५ में कहते हैं कि उससे ही जीवोंको यह भिन्न आत्माका एकत्व हम दिखाते हैं । उनमें आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, परापरगुरुका उपदेश और स्वसंवेदन - यह चार प्रमाणके द्वारा उत्पन्न अपने ज्ञानका विभवसे--- स्वसे एकत्व और परसे विभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं । ( वहां से मनन कर लेना) बारह सम्यक्भावना द्वारा अपनी निश्चय आत्मामें ही एकत्व - निश्चयकी भावना - एकाग्रता - कर्तव्य है । (जैसा आलम्बन वैसा अनुभव ) ज्ञानी आत्मकल्याणेच्छुकको तो बाह्यमें रस नहीं है, यदि बाह्यमें भूमिकानुसार उपयोग लग जाय तो भारी लज्जा-शर्म होती है । अतः अन्तरङ्गमें भी कोई विकल्प - गुण भेदके व्यवहार या निश्चयनय के विकल्प आदि सभी - किसी भी विकल्प जालमें रहना नहीं चाहते, निरन्तर स्वाश्रय के बल द्वारा निःशंक दृढ़ता के अस्तित्वमें सभी विषमताओंका नकार-निषेध ही है और अपना नित्य एकत्व भूतार्थ स्वभाव सन्मुख रहना ही उत्तम समझते हैं- यदि यह बात है तो अन्यको गौण - सहचर हेतु व्यवहार - साधन आदि कहा जाता है । ]
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