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कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं वाहिरदव्वं, जाणदि रूवादु अप्पणो भिगणं ।
जाणंतो वि हु जीवो, तत्थेव य रच्चदे मूढो ॥८१॥ अन्वयार्थः-[ एवं ] इस तरह पहिले कहे अनुसार [ वाहिरदव्वं ] सब बाह्य वस्तुओंको [ अप्पणो ] अपने ( आत्म ) [रूवादु ] स्वरूपसे [भिण्णं ] भिन्न [ जाणदि ] जानता है [ जाणतो वि हु] तो भी प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ मूढो ] यह मूढ ( मोही) [जीवो ] जीव [ तत्थेव य रचदे ] उन परद्रव्यों में ही राग करता है । सो यह बड़ी मूर्खता है।
जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिरणं ।
अप्पाणं पि य सेवदि, कजकरं तस्स अण्णत्त ॥८२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो जीव [ जीवसरूवादु ] अपने स्वरूपसे [ देहं ] देहको [तच्चदो भिण्णं ] परमार्थसे भिन्न [जाणिऊण ] जानकर [अप्पाणं पि य सेवदि ] आत्मस्वरूपको सेता है ( ध्यान करता है ) [ तस्स अण्णत्तं कजकरं ] उसके अन्यत्वभावना कार्यकारिणी है।
भावार्थ:-जो देहादिक परद्रव्योंको भिन्न जानकर अपने नित्यज्ञानानन्द स्वरूपका सेवन करता है उसके अन्यत्वभावना कार्यकारिणी है ।
* दोहा * निज आतमतें भिन्न पर, जानै जे नर दक्ष । निजमें रमैं वमैं अपर, ते शिव लखें प्रत्यक्ष ।।५।।
इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥
के रूवादु इत्यादि पाठः।
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