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कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-कोई समझता होगा कि जिनके बड़ा पुण्यका उदय है उनके तो सुख है सो संसारमें तो सुख किसीके भी नहीं है । भरत चक्रवर्ती जैसे भी अपमानादिसे दुःखी ही हुए तो औरोंकी क्या बात ?
आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैंसयलट्ठ विसह-जोओं, बहुपुराणस्स वि ण सव्वहा होदि । तं पुण्णं पि ण कस्स वि, सव्वं जेणिच्छिदं लहदि ॥५०॥
अन्वयार्थः-( इस संसार में ) [ सयलट्ठविसहजोमओ ] समस्त जो पदार्थ, वे ही हुए विषय कहिये भोग्य वस्तु, उनका योग [ बहुपुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि ] बड़े पुण्यवानोंको भी पूर्णरूपसे नहीं मिलता है [तं पुण्णं पि ण कस्स वि ] ऐसा पुण्य किसीके भी नहीं है [ जे सव्वं णिच्छिदं लहदि ] जिससे सब हो मनवांछित मिल जाय ।
__ भावार्थ:-बड़े पुण्यवान्के भी वांछित वस्तुमें कुछ कमी रह ही जाती है, सब मनोरथ तो किसीके भी पूरे नहीं होते हैं तब सर्वसुखी कैसे होवे ?
कस्स वि णस्थि कलत्तं, अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती ।
अह तेसिं संपत्ती, तह वि सरोओ हवे देहो ॥५१॥ अन्वयार्थः-[ कस्स वि कलत्तं णत्थि ] किसी मनुष्यके तो स्त्री नहीं है [ अहव कलत्तं पुत्तसंपची ण ] किसीके यदि स्त्री है तो पुत्रकी प्राप्ति नहीं है [ अह तेसिं संपत्ती । किसीके पुत्रकी प्राप्ति है [ तह वि सरोओ हवे देहो ] तो शरीर रोग सहित है ।
अह णीरोओ देहो, तो धण-धण्णाण णेय सम्पत्ति ।
अह धण-धण्णं होदि हु, तो मदणं झत्ति दुक्केइ ॥५२॥ अन्वयार्थ:-[अह णीरोओ देहो ] यदि किसीके नीरोग शरीर भी हो तो धणधण्णाण णेय सम्पत्ति ] तो धनधान्यकी प्राप्ति नहीं है [ अह धणधण्णं होदि हु] यदि धन धान्यकी भी प्राप्ति हो जाय [ तो मरणं झत्ति ढुक्केइ ] तो शीघ्र मरण हो जाता है।
कस्स वि दुट्ठ-कलत्तं, कस्स वि दुव्वसण-वसणिो पुत्तो। कस्स वि अरिसमबंधू, कस्स वि दुहिदा वि दुच्चरिया ॥५३॥
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