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कार्तिकेयानुप्रेक्षा [जत्थ माया वि भक्खदि ] जहां जिसके गर्भमें उत्पन्न हआ ऐसी माता भी भक्षण कर जाती है [ तत्थ अण्णो को रक्खेदि ] वहां दूसरा कौन रक्षा करे ?
तिव्व-तिसाए तिसिदो, तिव्व-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिव्वं पावदि दुक्खं, उयर-हुयासेण डझतो ॥४३॥
अन्वयार्थः- ( उस तिर्यंचगतिमें यह जीव ) [ तिब्बतिसाए तिसिदो] तीव्र प्याससे प्यासा [तिब्बविभुक्खाइ भुक्खिदो संतो] तीव्र भूखसे भूखा होता हुआ [ उयरहुयासेण डझंतो ] उदराग्निसे जलता हुआ [ तिव्वं दुक्खं पावदि ] तीव्र दुःख पाता है। अब इसका संकोच करते हैं
एवं बहुप्पयारं, दुक्खं विसहेदि तिरियजोणीसु।
तत्तो णीसरदूणं, लद्धि-अपुण्णो णरो होदि ॥४४॥ अन्वयार्थः-[ एवं ] ऐसे ( पूर्वोक्तप्रकार ) [ तिरियजोणीसु ] तिर्यंचयोनिमें (जीव ) [ बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि ] अनेक प्रकारके दुःख सहता है [ततो णीसरदूणं] उस तिर्यंचगतिसे निकल कर [ लद्धिअपुण्णो णरो होदि ] लब्धि-अपर्याप्त (जहां पर्याप्ति पूरी ही नहीं होती) मनुष्य होता है ।।
अब मनुष्यगतिके दुःख बारह गाथाओंमें कहते हैं सो प्रथम ही गर्भमें उत्पन्न होने की अवस्था बतलाते हैं।
अह गब्भे वि य जायदि, तत्थ वि णिवडीकयंगपच्चंगो। विसहदि तिव्वं दुक्खं, णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥४५॥
अन्वयार्थः-[ अह गम्भे वि य जायदि ] अथवा गर्भ में भी उत्पन्न होता है तो [तस्थ वि णिवड़ीकयंगपच्चंगो] वहां भी सिकुड़ रहे हैं हाथ, पैर आदि अंग तथा उगली आदि प्रत्यंग जिसके, ऐसा होता हुआ तथा [ जोणीदो णिग्गममाणो वि ] योनिसे निकलते समय भी [ तिव्वं दुक्खं विसहदि ] तीव्र दुःखको सहता है । फिर कैसा होता है सो कहते हैं
बालोपि पियरचत्तो, परउच्छि?ण बड्ढदे दुहिदो। एवं जायण-सीलो, गमेदि कालं महादुक्खं ॥४६॥
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