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कार्तिकेयानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ जीवो ] यह जीव [ विविहा कम्मपुग्गला णोकम्मपुग्गला वि य ] ( इस लोकमें भरे हुए ) अनेक प्रकारके पुद्गल जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप तथा औदारिकादि शरीर नोकर्मरूप हैं उनको [पडिसमयं ] समय समय प्रति [मिच्छत्तकषायसंजुत्तो ] मिथ्यात्व कषाय सहित होता हुआ [ बंधदि मुंचदि ] बांधता है और छोड़ता है।
भावार्थ:-मिथ्यात्व कषायके वशसे, ज्ञानावरणादि कर्मोंका समयप्रबद्धअभव्यराशिसे अनन्तगुणा सिद्धराशिके अनन्तवें भाग पुद्गलपरमाणुओंका स्कन्धरूप कार्माणवर्गणाको समयसमयप्रति ग्रहण करता है। जो पहिले ग्रहण किये थे वे सत्तामें हैं, उनमें से इतने ही समयसमय नष्ट होते हैं । वैसे ही औदारिकादि शरीरोंका समयप्रबद्ध', शरीरग्रहणके समयसे लगाकर आयुकी स्थितिपर्यंत ग्रहण करता है वा छोड़ता है। इस तरह अनादि कालसे लेकर अनन्तबार ग्रहण करना और छोड़ना होता है। वहां एक परिवर्तनके प्रारम्भमें प्रथमसमयके समयप्रबद्ध में जितने जितने पुद्गल परमाणु जैसे स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्ध रूप रस तीव्र मन्द मध्यम भावसे ग्रहण किये हों उतने ही वैसे ही कोई समयमें फिरसे ग्रहण करने में आवें तब एक कर्म परावर्तन तथा नोकर्मपरावर्तन होता है । मध्यमें अनन्तबार और भांतिके परमाणु ग्रहण होते हैं वे नहीं गिने जाते हैं । वैसेके वैसे फिरसे ग्रहण करनेको अनन्तकाल बीत जाय उसको एक द्रव्य परावर्तन कहते हैं । इस तरहके इस जीवने इस लोकमें अनन्त परावर्तन किये हैं । अब क्षेत्रपरिवर्तनको कहते हैं
सो को वि णस्थि देसो, लोयायासस्स णिरवसेसस्स ।
जत्थ ण सव्वो जीवो, जादो मरिदो य बहुवारं ॥६८।। अन्वयार्थः-[ गिरवसेसस्स लोयायासम्स ] समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में [सो को वि देसो पत्थि ] ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है [ जत्थ सव्वो जीवो] जिसमें ये सब ही संसारी जीव [ बहुवारं जादो य मरिदो ण ] कई बार उत्पन्न न हुए हों तथा मरे न हों।
१ समयप्रबद्ध =एक समय में जितने कर्मपरमाणु और नोकर्म परमाणु बंधे, उन सबको समय प्रबद्ध
कहते हैं।
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