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कार्तिकेयानुप्रेक्षा ___ अन्वयार्थः-[ कम्मविवायवसादो ] कर्म विपाकके वशसे [ सत्त वि मिचो होदि ] शत्रु भी मित्र हो जाता है [ तहा मित्तो वि य सत्तू जायदे ] और मित्र भी शत्रु हो जाता है [ एसो संसारसब्भावो ] ऐसा संसारका स्वभाव है ।
भावार्थः-पुण्यकर्मके उदयसे शत्रु भी मित्र हो जाता है और पाप कर्मके उदयसे मित्र भी शत्रु हो जाता है ।
अब देवगतिका स्वरूप कहते हैं
अह कहवि हवदि देवो, तस्स य जायेदि माणसं दुक्खं । दण महद्धीणं, देवाणं रिद्धिसंपत्ती ॥५८।।
अन्वयार्थः-[ अह कहवि देवो हवदि ] अथवा बड़े कष्ट से देव भी होता है तो [ तस्स ] उसके [ महद्धीणं देवाणं ] बड़े ऋद्धिधारक देवोंकी [ रिद्धिसंपत्तीदट्ट ण ] ऋद्धि सम्पत्तिको देखकर [ माणसं दुक्खं जायेदि ] मानसिक दुःख उत्पन्न होता है ।
इट्ठविश्रोगं दुक्खं, होदि महद्धीण विसय-तण्हादो। विसयवसादो सुक्खं, जेसिं तेसिं कुतो तित्ती ॥५६॥
अन्वयार्थः-[ विसयतण्हादो] विषयोंको तृष्णासे [ महद्धीण ] महद्धिक देवोंको भी [ इट्ट विओगं दुक्खं होदि ] इष्ट ( ऋद्धि, देवांगना आदि ) वियोगका दुःख होता है [ जेसिं विसयवसादो सुक्खं ] जिनके विषयोंके आधीन सुख है [तेसिं कुतो तिची] उनके कैसे तृप्ति होवे ? तृष्णा बंधती ही रहे ।
अब शारीरिक दुःखसे मानसिक दुःख बड़ा है ऐसा कहते हैं-- ___ सारीरियदुक्खादो, माणसदुक्खं हवेइ अइपउरं ।
माणसदुक्खजुदस्स हि, विसया वि दुहावहा हुँति ॥६०॥ अन्वयार्थः--( कोई समझता होगा कि शरीरसम्बन्धी दुःख बड़ा है, मानसिक दुःख तुच्छ है, उसको समझाते हैं) [सारीरियदुक्खादो] शारीरिक दुःखसे [माणसदुक्खं ] मानसिक दुःख [ अइपउरं हवेइ ] अतिप्रचुर ( बहुत ज्यादा ) है ( कई गुना बढ़कर होता है ) [ माणसदुक्खजुदस्स हि ] ( देखो! ) मानसिक दुःख सहित
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