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संसार-अनुप्रेक्षा
अण्ण-भवे जो सुयणो, सो विय गरये हणेइ अइ-कुविदो । एवं तिव्व- विवागं, बहु-कालं विसहदे दुःखं ॥३६॥ अन्वयार्थः - [ अण्णभवे जो सुयणो ] पूर्वभव में जो सज्जन कुटुम्बका था [ सोविय णरये अइकुविदो हणे ] वह भी नरकमें क्रोधित होकर घात करता है [ एवं तिब्बविवागं दुःखं बहुकालं विसहदे ] इसप्रकार तीव्र है विपाक जिसका ऐसा दुःख बहुत काल तक नारकी सहता है ।
भावार्थ:- ऐसे दुःख कई सागरों तक सहता है, आयु पूरी हुए बिना वहां से निकलना नहीं होता है ।
अब तिर्यंचगति सम्बन्धी दुःखोंको साढ़े चार गाथाओं में कहते हैंतत्तोगीसरिदूणं, जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु ।
तत्थ व पावद दुःखं, गब्भे वि य छेयणादीयं ॥ ४० ॥
अन्वयार्थः – [ तत्वो णीसरिदुणं ] उस नरकसे निकल कर [ बहुवियप्पेसु तिरसु जायदि ] अनेक भेदवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है [तत्थ वि गब्भे दुःखं पावदि ] वहां भी गर्भ में दुःख पाता है [ वि य छेयणादीयं ] अपि शब्दसे सम्मूर्च्छन होकर छेदनादिकका दुःख पाता है ।
तिरिएहिंखज्जमाणो, दुट्ठमगुस्सेहिं हरणमाणो त्रि । सव्वत्थवि संतो, भय- दुक्खं विसहदे भीमं ॥ ४१ ॥
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अन्वयार्थः - ( उस तिर्यंचगतिमें यह जीव ) [ तिरिएहिं खजमाणो ] सिंहव्याघ्रादिकसे खाये जानेका [ विदुट्ठमगुस्सेहिं हण्णमाणो ] तथा दुष्ट मनुष्य, म्लेच्छ व्याध धीवरादिकसे मारे जानेका [ सव्वत्थ वि संतट्टो ] सब जगह दुःखी होता हुआ [ भीमं भयदुक्खं विसहदे ] रौद्र भयानक दुःखको विशेषरूपसे सहता है । अणोरणं खज्जंता, तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं ।
माया वित्थ भक्खदि, अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ :- ( जिस तिर्यंचगति में ) [ तिरिया अण्णोष्णं खज्जंता ] यह तिर्यंच ( जीव ) परस्पर में खाये जानेका [ दारुणं दुक्खं पावंति ] उत्कृष्ट दुःख पाता है * [ यहाँ एक समयकी भूल के फलरूप महान दुःख दंडको ]
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