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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
सुरधणु-तडि व्व चवला, इंदिय-विसया सुभिच्च वग्गा य । सव्वे, तुरय-गया रहवरादी य 119 11
दिट्ठ-पट्ठा
अन्वयार्थः - [ इंदियविसया ] इन्द्रियोंके विषय [सुभिचवग्गा ] अच्छे सेवकोंका समूह [य] और [ तुरयगयारहवरादीया ] घोड़े, हाथी, रथ आदिक [ सव्वे ] ये सब ही [ सुरधणुत डिव्वचवला ] इन्द्रधनुष तथा बिजली के समान चंचल हैं [ दिडपणड्डा ] दिखाई देकर नष्ट हो जानेवाले हैं ।
भावार्थ::- यह प्राणी, श्रेष्ठ इन्द्रियोंके विषय, अच्छे नौकर, घोड़े, हाथी, रथादिककी प्राप्तिसे सुख मानता है सो ये सब क्षणविनश्वर हैं इसलिये (निज आत्मासे ही उत्पन्न अतीन्द्रिय) अविनाशी सुखको प्राप्त करनेका उपाय करना ही योग्य है । अब बन्धुजनों का संयोग कैसा है सो दृष्टान्तपूर्वक कहते हैंपंथे पहिय - जणां, जह संजोओ हवेइ खणमित्तं । बंधुजणाणं च तहा, संजोओ अधुओ होई ॥८॥
अन्वयार्थः – [ जह ] जैसे [ पंथे ] मार्ग में [ पहियजणाणं ] पथिक जनोंका [ संजोओ ] संयोग [ खणमित्तं ] क्षणमात्र [ हवेह ] होता है [ तहा ] वैसे ही ( संसार में ) [ बंधुजणाणं ] बंधुजनोंका [ संजोओ ] सयोग [ अधुओ ] अस्थिर [ होइ ] होता है ।
भावार्थ:: - यह प्राणी बहुत कुटुम्ब परिवार पाता है तब अभिमान करके सुख • मानता है, इस मद से अपने स्वरूपको भूल जाता है । यह बन्धुवर्गका संयोग, मार्ग के पथिकजनोंके समान है जिसका शीघ्र ही वियोग होता है । इसमें सन्तुष्ट होकर अपने असली स्वरूपको नहीं भूलना चाहिये ।
अब देहसंयोगको अस्थिर दिखाते हैं:
अइलालियो विदेहो, रहाण सुगंधेहिं विविह-भक्खेहिं । स्वमित्ते वि विडइ, जल-भरियो आम घडओ व्व ॥६॥
अन्वयार्थः - [ देहो ] यह देह [ ण्हाणसुगंधेहि ] स्नान तथा सुगन्धित पदार्थों से सजाया हुआ भी ( तथा ) [ विविहभक्खेहिं ] अनेक प्रकारके भोजनादि भक्ष्य
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