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अध्र व-अनुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पुण ] और [ जो लच्छि संचदि ] जो लक्ष्मीको इकट्ठी करता है [ण य भुजदि ] न तो भोगता है [ पत्तेसु णेय देदि ] और न पात्रोंके निमित्त दान करता है [ सो अप्पाणं वंचदि] वह अपनी आत्माको ठगता है [ तस्स मणुयत्वं णिप्फलं ] उसका मनुष्यपना निष्फल है।।
___ भावार्थ:-जिस पुरुषने लक्ष्मीको पा करके संचय ही किया, दान तथा भोगमें खर्च नहीं की, उसने मनुष्यभव पा करके क्या किया ? निष्फल ही खोया, केवल अपनी आत्माको ठगा।
जो संचिऊण लच्छि, धरणियले संठवेदि अइदूरे ।
सो पुरिसो तं लच्छि, पाहाण-समाणियं कुणइ ॥१४॥ अन्वयार्थः-[ जो लच्छि संचिऊण ] जो पुरुष लक्ष्मीको संचय करके [ अइद्रे धरणियले संठवेदि ] बहुत नीचे जमीनमें गाड़ता है [ सो पुरिसो तं लच्छि ] वह पुरुष उस लक्ष्मीको [ पाहाणसमाणियं कुणइ ] पत्थरके समान करता है।
भावार्थ:-जैसे मकानकी नींवमें पत्थर रखा जाता है वैसे ही इसने लक्ष्मीको गाडी तब वह पत्थरके समान हुई।
अणवरयं जो संचदि, लच्छि ण य देदि णेय भुदि ।
अप्पणिया वि य लच्छी, पर-लच्छिसमाणिया तस्स ॥१५॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ लच्छि ] लक्ष्मी को [ अणवरयं ] निरंतर सिंचदि] संचित करता है [ ण य देदि ] न दान करता है [णेय भुजेदि ] न भोगता है [ तस्स अप्पणिया वि य लच्छी ] उसके अपनी लक्ष्मी भी [ पर लन्छिसमाणिया ] परको लक्ष्मीके समान है ।
भावार्थ:-जो लक्ष्मीको पाकर दान भोग नहीं करता है, उसके वह लक्ष्मी. दूसरे की है । आप तो रखवाला (चौकीदार) है, लक्ष्मीको कोई दूसरा ही भोगेगा।
लच्छी-संसत्तमणो, जो अप्पाणं धरेदि कट्ठण ।
सो रोइ-दाइयाणं, कज्जं साहेहि मूढप्पा ॥१६॥ अन्वयार्थः-[ जो] जो पुरुष [ लच्छीसंसत्तमणो ] लक्ष्मीमें आसक्त चित्त होकर [ अप्पाणं कट्ठण धरेदि ] अपनी आत्माको कष्ट सहित रखता है [ सो मृढप्पा ]
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