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अध्रुव-अनुप्रेक्षा पंडिएहिं थुबदि ] वह पुरुष पंडितों द्वारा स्तुति करने योग्य है [वि तम्स लच्छी सहला हवे ] और उसीकी लक्ष्मी सफल है ।।
भावार्थ:-लक्ष्मी, पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान, परोपकार इत्यादि धर्मकार्यों में खर्च की गई ही सफल है, पंडित लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं ।
एवं जो जाणित्ता, विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं । हिरवेक्खो तं देदि, हु तस्त हवे जीवियं सहलं ॥२०॥
अन्वयार्थः-[ जो एवं जाणित्ता ] जो पुरुष ऐसा जानकर [ धम्मजुत्ताणं विहलियलोयाण ] धर्मयुक्त ऐसे निर्धन लोगोंके लिये [णिरवेक्खो] प्रत्युपकारकी इच्छासे रहित होकर [तं देदि ] उस लक्ष्मीको देता है [ हु तस्स जीवियं सहलं हवे] निश्चयसे उसीका जन्म सफल होता है ।
भावार्थ:-अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए तो दान देनेवाले संसार में बहुत हैं । जो प्रत्युपकारकी इच्छासे रहित होकर धर्मात्मा तथा दुखी दरिद्री पुरुषोंको धन देते हैं, ऐसे विरले हैं उनका जीवन सफल है ।
अब मोहका माहात्म्य दिखाते हैं :जल बुब्बुय-सारिच्छं धणजोव्वण जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो वि णिच्चं, इह-बलिओ मोह-माहप्पो॥२१॥
अन्वयार्थः-( यह प्राणो ) [ धणजव्यणजीवियं ] धन, यौवन, जीवनको [जलबुब्बुय-सारिच्छं ] जलके बुदबुदेके समान (तुरंत नष्ट होते) [ पेच्छंता पि] देखते हए भी [ णिच्चं मण्णंति ] नित्य मानता है (यह बड़े ही आश्चर्यकी बात है) [मोहमाहप्पो अइबलिओ ] मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान है ।
भावार्थ:-वस्तुस्वरूपका अन्यथा ज्ञान कराने में मदिरा पीना, ज्वरादिक रोग, नेत्र विकार, अन्धकार इत्यादि अनेक कारण हैं परन्तु यह मोह भाव सबसे बलवान है, वस्तुको प्रत्यक्ष विनाशीक देखता है तो भी नित्य ही मान्य कराता है तथा मिथ्यात्व, काम, क्रोध, शोक इत्यादिक हैं वे सब मोह ही के भेद हैं, ये सब ही वस्तु स्वरूप में अन्यथाबुद्धि कराते हैं ।
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