________________ भव्य आत्माओं में भी कुछ 'जाति भव्य' आत्माएँ हैं, जिनमें मोक्ष गमन की योग्यता का सद्भाव होने पर भी निमित्त कारण के अभाव में उन आत्माओं का कभी मोक्ष होने वाला नहीं है / __ जो आत्माएँ भविष्य में कभी भी मोक्ष में जाने वाली हैं, उन आत्माओं का कर्मबंध अनादि-सांत है, जबकि जो आत्माएँ भविष्य में कभी भी मोक्ष में जाने वाली नहीं हैं, उन आत्माओं का कर्मबंध, अनादि-अनंत है | आत्मा और कर्म का संयोग इस प्रकार का है कि उसे पुरुषार्थ द्वारा अलग किया जा सकता है | जिस प्रकार मलिन स्वर्ण आग में तपाने से एकदम शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार अध्यात्म की उत्कृष्ट साधना के द्वारा आत्मा व कर्म के संयोग को तोड़ा जा सकता है / आत्मा जब कर्म के संयोग से सर्वथा मुक्त बनती है, तब वह संसार के परिभ्रमण से सदा के लिए मुक्त बनकर चौदह राजलोक के अग्रभाग पर स्थिर हो जाती है / ___ आत्मा स्वयं ज्ञानमय है / सुख यह आत्मा का मूलभूत स्वभाव है | कर्म से मुक्त बनी आत्मा अनंतज्ञान गुण को प्राप्त करती है, इसके साथ ही वह शाश्वत व अक्षय सुख का अनुभव करती है। ___ एक बार जब आत्मा कर्म के संयोग से मुक्त बन जाती है, तब वह सदा के लिए संसार के परिभ्रमण से मुक्त हो जाती है, वह आत्मा पुनः कभी भी इस संसार में नहीं आती है / संसार और संसार में रही आत्मा की उत्पत्ति मानी जाय तो यही प्रश्न खड़ा होता है कि जब संसार का प्रारंभ हआ तब आत्मा शुद्ध थी या अशुद्ध ? यदि अशुद्ध आत्मा की उत्पत्ति हुई तो उसकी अशुद्धि का कारण क्या ? क्या उस अशुद्धता के पूर्व वह आत्मा शुद्ध थी ? यदि शुद्ध आत्मा भी पुनः अशुद्ध बन जाती हो तब तो मोक्ष भी निरर्थक सिद्ध हो जाएगा | मोक्ष में गई आत्मा भी पुनः अशुद्ध बन जाएगी / जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार इस जगत् की कोई आदि नहीं है और आत्मा व कर्म का संयोग भी प्रवाह की अपेक्षा अनादि है। कर्मग्रंथ (भाग-1) 56