________________ होता है। मिथ्यात्व से ग्रस्त आत्मा, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मान बैठती है। ___ कर्मबंध की मुख्य जड़ मिथ्यात्व ही है, अविरति आदि तो उसकी शाखाएँ हैं | जड़ यदि मजबूत है तो वृक्ष हरा-भरा रहेगा और जड़ यदि कट गई तो वृक्ष को सूखते देर नहीं लगेगी / अभव्य आत्मा में मिथ्यात्व अनादिअनंत है / वह आत्मा कभी भी सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त नहीं कर पाती है / आत्मा के जो षट्थान बतलाए गए हैं-उनमें अंतिम दो-मोक्ष है और मोक्ष का उपाय है, उसे मानने के लिए अभव्य आत्मा कभी तैयार नहीं होती है / उसी प्रकार अचरमावर्त में रही हुई आत्मा को भी मिथ्यात्व का गाढ़ उदय होने के कारण मोक्ष अथवा मोक्षसुख को पाने की लेश भी इच्छा नहीं होती है / जिस प्रकार कुशल वैद्य की सलाह लिये बिना स्वेच्छानुसार कोई दवाई ली जाए तो उस दवाई से लाभ होने के बजाय नुकसान ही होता है, उसी प्रकार अरिहंत परमात्मा रूपी भाव वैद्य की आज्ञा की अवेहलना कर स्वच्छंद मति से कुछ भी बाह्य धर्म किया जाए तो कुछ लाभ नहीं होता है | अनंतज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा ने अपने केवलज्ञान के आलोक में जगत् के स्वरूप को साक्षात् देखकर जीव आदि तत्त्वों का जो स्पष्ट वर्णन किया है, उसे नहीं मानना, उस पर श्रद्धा नहीं करना और उससे विपरीत श्रद्धा करना इसी का नाम मिथ्यात्व है / इस संसार में आत्मा के समस्त दुःखों का मूल मिथ्यात्व है | मिथ्यात्व के कारण ही आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का भान नहीं होता मिथ्यात्व परम रोग है / इस रोग के कारण आत्मा अपने पूर्ण स्वास्थ्य स्वरूप, सिद्ध-स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ नहीं बन पाती है | यह संसार जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक-आधि-व्याधि और उपाधि से भरा हुआ है / इस संसार में लेश भी सुख नहीं है, फिर भी मिथ्यात्व से ग्रस्त बनी आत्मा को इस संसार के प्रति निर्वेद भाव उत्पन्न नहीं होता है / उसे तो संसार के तुच्छ व क्षणिक सुखों का ही तीव्र राग होता है | कर्मग्रंथ (भाग-1) 160