________________ आयुष्य के दो भेद हैं. 1. अपवर्ती आयुष्य कर्म : जिस आयुष्य में कमी हो सकती हो उसे अपवर्ती आयुष्य कर्म कहते है आयुष्य कम होने पर भी अन्तर्मुहूर्त आयुष्य तो शेष रहता ही है। 2. अनपवर्ती आयुष्य कर्म : निकाचित रूप में बँधे हुए जिस आयुष्य में लेश भी कमी नहीं होती हो उसे अनपवर्ती आयुष्य कहते हैं / इस आयुष्य कर्म के भी दो भेद हैं - (अ) सोपक्रम अनपवर्ती : सोपक्रम अर्थात् आयुष्य टूटने के संयोग / आयुष्य टूटने के संयोग पैदा होने पर भी जो आयुष्य टूटे नहीं उसे सोपक्रम अनपवर्ती आयुष्य कहते हैं / (ब) निरुपक्रम अनपवर्ती : जिस आयुष्य के टूटने के संयोग ही उपस्थित नहीं होते हों, उसे निरुपक्रम अनपवर्ती आयुष्य कहते हैं | आयुष्य का आधार, आयुष्य कर्म होने से आयुष्य कर्म नष्ट होने पर आयुष्य भी क्षीण हो जाता है | देव, नारक, चरम शरीरी, शलाका पुरुष, अकर्मभूमि और अन्तर्वीप में पैदा हुए मनुष्य-तिर्यंच, कर्म भूमि में पैदा हुए युगलिक आदि का आयुष्य अनपवर्ती होता है / अपवर्ती आयुष्य सोपक्रम से युक्त होता है | अपने मन में उत्पन्न अध्यवसायादि तथा विष-शस्त्र आदि से जीवन का जो अंत आता है, वे सब उपक्रम कहलाते हैं / उपक्रम के 7 भेद हैं - ___1. अध्यवसाय : राग, भय और स्नेह के तीव्र अध्यवसाय के कारण भी आयुष्य खंडित हो जाता है | प्रिय व्यक्ति के वियोग को सहन नहीं करने के कारण अचानक Heart Fail हो जाता है / कर्मग्रंथ (भाग-1))