________________ समय उसमें विविध वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पैदा होते हैं | उन वर्ण आदि को पैदा करने का काम वर्ण आदि नाम कर्म करते हैं / 13) आनुपूर्वी नाम कर्म : मरण स्थान से उत्पत्ति स्थान समश्रेणि में हो तो जीव ऋजुगति से उत्पत्ति स्थान में पहुँच जाता है, उस समय उसे किसी की मदद की जरूरत नहीं रहती है, परंतु उत्पत्ति स्थान से विषम गति में जाना हो तो मोड़वाले स्थान पर उसे मदद की जरूरत पड़ती है, यह आनुपूर्वी नाम कर्म उस मोड़ के स्थान पर जीव को आगे बढ़ाने में सहायक बनता है। 14) विहायोगति : जिस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ अथवा अशुभ होती है, उसे विहायोगति नाम कर्म कहते हैं / पिंडपयडि त्ति चउदस, परघा उस्सास आयवुज्जोयं / अगुरु लहु तित्थ निमिणो-वघायमिअ अट्ट पत्तेआ / / 25 / / शब्दार्थ पिंडपयडि-पिंड प्रकृतियाँ, त्ति इस प्रकार, चउदस-चौदह, परघा=पराघात, उस्सास श्वासोच्छ्वास, आयवुज्जोयं आतप-उद्योत, अगुरुलहु अगुरुलघु, तित्थ तीर्थंकर, निमिणो निर्माण, वघायं=उपघात, इअ इस प्रकार, अट्ठ-आठ, पत्तेआ प्रत्येक | गाथार्थ इस प्रकार चौदह पिंड प्रकृतियाँ समझनी चाहिए / पराघात, श्वासोच्छ्वास , आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण और उपघातये आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ हैं / विवेचन पराघात आदि आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ कहलाती हैं | इनका विस्तृत वर्णन आगे की गाथाओं में किया जाएगा / त्रस-दशक स्थावर दशक तस बायर-पज्जतं, पत्तेय-थिरं सुभं च सुभगं च / सुसराइज्ज जसं, तस दसगं थावर दसं तु इमं / / 26 / / (कर्मग्रंथ (भाग-1) 1157