________________ शीत प्रकाश फैलाता हो, उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं / इस कर्म का उदय ज्योतिषी विमान के जीवों को होता है / खद्योत व कुछ वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार का होता है / देवता तथा लब्धिधारी मुनि जब उत्तर-वैक्रिय शरीर करते हैं, तब उनके शरीर में से ठंडा प्रकाश निकलता है, उसे भी उद्योतनामकर्म का उदय समझना चाहिए। अगुरुलघु-तीर्थंकर नामकर्म अंगं न गुरु न लहुअं, जायइ जीवस्स अगुरुलहु उदया / तित्थेण तिहुअणस्स वि, पुज्जो से उदओ केवलिणो ||47|| शब्दार्थ __ अंग-अंग, गुरु भारी, लहुअं हल्का , जायइ होता है, जीवस्स-जीव को , अगुरु लहु उदया अगुरुलघु नामकर्म के उदय से, तित्थेण तीर्थंकर नामकर्म के उदय से, तिहुअणस्स-तीन भुवन के, पूज्जो पूज्य , से उसका , उदओ=उदय , केवलिणो केवलज्ञानी को / गाथार्थ अगुरुलघु नामकर्म के उदय से जीव का शरीर न हल्का होता है और न ही भारी होता है / तीर्थंकर नामकर्म के उदय से जीव त्रिभुवन को भी पूज्य होता है, इसका उदय केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद होता है | विवेचन 1. अगुरुलघु नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव को अति भारी भी नहीं और अति हल्का भी नहीं, ऐसा शरीर प्राप्त हो उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं / 8. तीर्थंकर नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीवात्मा त्रिभुवन पूज्य बनता है / तीर्थंकर बनने वाली आत्मा को ही यह कर्म उदय में आता है / इस कर्म का रसोदय केवलज्ञान की प्राप्ति के साथ होता है | इस कर्म का उदय होने पर आत्मा अष्ट महाप्रातिहार्य आदि से कर्मग्रंथ (भाग-1) = 184 =