Book Title: Karmgranth Part 01
Author(s): Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 198
________________ 60 गोत्र व अंतराय कर्म ) ..................... गोअं दुहुच्च नीअं, कुलाल इव सुघड भुंभलाइअं / विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु वीरिए अ ||52 / / शब्दार्थ गोअंगोत्रकर्म, दुह=दो भेदवाला, उच्चनी उच्च और नीच , कुलालइव=कुंभकार की तरह, सुघड अच्छा घड़ा, भुंभलाइअंशराब का घड़ा, विग्घं अंतरायकर्म, दाणे-दान में, लाभे लाभ में, भोगे=भोग में, उवभोगेसु-उपभोग में, वीरिए वीर्य में, अ=तथा | गाथार्थ अच्छा घड़ा और मदिरा का घड़ा बनानेवाले कुंभकार के कार्य के समान गोत्र कर्म का स्वभाव है / इसके दो भेद हैं 1) उच्च गोत्र और 2) नीच गोत्र / दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अंतराय रूप अंतराय कर्म के पाँच भेद हैं। विवेचन सातवाँ गोत्र कर्म : गोत्र कर्म का स्वभाव कुंभकार की भाँति है / जिस प्रकार कुंभार छोटेबड़े विविध प्रकार के घड़े तैयार करता है, उन घड़ों में से कुछ घड़े कलश के रूप में काम में आते हैं, जो अक्षत व चंदन आदि से पूजे जाते हैं, जबकि कुछ घड़ों में निंदनीय पदार्थ शराब आदि भरी जाती है / __ इसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से जीव उच्च गोत्र और नीच गोत्र में जन्म लेता है / धर्म और नीति की रक्षा के संबंध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की हो, वे उच्च कुल हैं, जैसे-इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि / कर्मग्रंथ (भाग-1) 190 -

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