Book Title: Karmgranth Part 01
Author(s): Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ रत्न स्थापनाचार्य की लकड़ी की खोखली डंडी में छिपा दिए / संयम जीवन की सुंदर आराधना करने पर भी वह उन बाह्य रत्नों की ममता का त्याग नहीं कर सकी, इसके परिणामस्वरूप वह मरकर गिलहरी बनी और पुनः पुनः उस स्थापनाचार्य जी के पास आने लगी / एक बार उस नगर में अवधिज्ञानी महात्मा का आगमन हुआ / अन्य साध्वी जी भगवंत ने जब उस गिलहरी के बारे में पृच्छा की , तब ज्ञानी गुरु भगवंत ने बतलाया कि पूर्व भव में रही रत्नों की मूर्छा के कारण वह साध्वी मरकर गिलहरी बनी है / अपने पूर्व भव को सुनने से गिलहरी को जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ | उसे अपने पाप का पश्चाताप हआ | अंत में उसने भी अनशन स्वीकार किया और मरकर देवगति में उत्पन्न हुई / इस प्रकार धन की मूर्छा के कारण एक साध्वी भी तिर्यंच गति में पहुँच गई। धिक्कार हो धन की इस मूर्छा को ! रौद्र ध्यान से नरक गति ___1. पूर्व भव में राजगृही के मम्मण सेठने त्यागी तपस्वी महामुनि को अत्यंत ही भक्तिपूर्वक मोदक बहोराया था, परंतु दान देने के बाद उसके परिणाम पतित हो गए थे, उसे अत्यंत ही पश्चाताप हो आया / इस प्रकार पश्चाताप भाव के कारण उसने अपने पुण्य कर्म को कमजोर कर दिया / इस कर्म के उदय के फलस्वरूप उसे रत्नजड़ित दो बैलों की प्राप्ति हुई / अपार संपत्ति प्राप्त होने पर भी मुनि के पास से पुनः मोदक की याचना करने के कारण उसने जिस पाप कर्म का बंध किया, उस कर्म के कारण वह अपार संपत्ति का लेश भी उपभोग नहीं कर सका / जीवन पर्यंत अपनी संपत्ति को बढ़ाने में ही प्रयत्नशील रहा / इस प्रकार धन की तीव्र ममता और संरक्षणानुबंधी रौद्र ध्यान के पाप के फलस्वरूप उसने नरकायु का बंध किया और वह मरकर 7वीं नरक में चला गया | तिर्यंच व मनुष्य आयु तिरिआउ गूढहियओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साउ / पयईइ तणुकसाओ, दाणरुइ मज्झिमगुणो अ ||58 / / कर्मग्रंथ (भाग-1)

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224