________________ पर्याप्त नामकर्म 3. पर्याप्त नामकर्म : जिस शक्ति विशेष से जीव , पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें आहार आदि के रूप में परिणत करता है, उसे पर्याप्ति कहते हैं | पर्याप्तियाँ छह हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति / एकेन्द्रिय जीव के चार, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को पाँच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को छह पर्याप्तियाँ होती हैं / जिस नामकर्म के उदय से जीव स्व योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने में सक्षम होता है, उसे पर्याप्त नामकर्म कहते हैं / पर्याप्त जीवों के दो भेद हैं 1) लब्धि पर्याप्त और 2) करण पर्याप्त / जो जीव अपनी अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं, वे लब्धि पर्याप्त कहलाते हैं। पर्याप्त नाम कर्म के उदयवाले जीव, लब्धि पर्याप्ता तथा अपर्याप्त नाम कर्म के उदयवाले जीव लब्धि अपर्याप्त कहलाते हैं / लब्धि पर्याप्त जीव, जब तक स्व योग्य पर्याप्ति को पूर्ण नहीं करते हैं, तब तक वे करण अपर्याप्ता कहलाते हैं और स्वयोग्य पर्याप्ति को जब पूरा कर लेते हैं, तब करण पर्याप्ता कहलाते हैं। जो जीव लब्धि पर्याप्ता होते हैं, वे अपने योग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे तब तक करण अपर्याप्ता और उसके बाद करण पर्याप्ता होते हैं / 2. जो जीव लब्धि अपर्याप्ता होते हैं, वे अवश्य करण अपर्याप्ता होते है / 3. जो जीव करण पर्याप्ता होते हैं, वे अवश्य लब्धि पर्याप्ता होते हैं / 4. जो जीव करण अपर्याप्ता हो वे लब्धि पर्याप्ता और अपर्याप्ता हो सकते हैं। नाभुवरि सिराइ सुहं, सुभगाओ सबजणइट्ठो ||50 / / शब्दार्थ पत्तेयतणु प्रत्येक शरीर, पत्ते प्रत्येक नामकर्म के उदएण-उदय से , दंत=दाँत , अट्ठिमाइ हड्डी आदि, थिरं स्थिर, नाभुवरि=नाभि के ऊपर, कर्मग्रंथ (भाग-1) 1187