________________ अशुभ रस - तिक्त और कटुरस स्पर्श - गुरु, कर्कश, रुक्ष और शीत स्पर्श / शेष 11 शुभ प्रकृतियाँ हैं शुभ वर्ण नामकर्म - श्वेत, पीत और लोहित शुभ गंध नामकर्म - सुगंध शुभ रस नामकर्म - कषाय, अम्ल , मधुर शुभ स्पर्श नामकर्म - लघु, मृदु, स्निग्ध और उष्ण स्पर्श (13) चार आनुपूर्वी ) चउह गइव्वाणुपूची, गइ पुची दुगं तिगं नियाउ जुअं / पुची उदओ वक्के, सुह-असुह वसुट्ट विहगगई ||43 / / शब्दार्थ ___ चउह=चार, गइल=गति की तरह, अणुपुबी आनुपूर्वी, गइ-पुव्वी, गति और आनुपूर्वी, दुगं=दो, तिगं=तीन, नियाउजुअं अपने आयुष्य सहित, तिगं=त्रिक, पुबी उदओ=आनुपूर्वी का उदय , वक्के वक्रगति में, सुह-शुभ, असुह=अशुभ , वसुट्ट-वृषभ और ऊंट, विहगगइ-विहायोगति | गाथार्थ ___ गति नामकर्म के अनुसार आनुपूर्वी नाम कर्म के भी चार भेद होते हैं, आनुपूर्त का उदय सिर्फ विग्रहगति में होता है / गति और आनुपूर्वी जोड़ने से गति द्विक और उसमें आयुष्य जोड़ने से गतित्रिक संज्ञाएँ बनती हैं / बैल और ऊँट की चाल की तरह शुभ अशुभ के भेद से विहायोगति नाम कर्म के दो भेद हैं। विवेचन आनुपूर्वी नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव विग्रह गति में अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है, उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं | 1. मृत्यु के बाद उत्पत्ति स्थल तक पहुँचने में जीव की गति दो प्रकार की होती है-ऋजु और वक्र | ऋजु गति से स्थलांतर में जाने के लिए जीव को (कर्मग्रंथ (भाग-1)) 1 180 %