________________ किसी प्रकार का नवीन प्रयत्न करना नहीं पड़ता है, क्योंकि उसे पूर्व शरीरजन्य वेग मिलता है और वह उसी वेग से धनुष में से छूटे बाण की तरह अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाता है, परंतु जो वक्रगति होती है, उसमें घुमावमोड़ होता है, विग्रह गति में रहा जीव जब गति करता है तब आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार गति करता हुआ आगे बढ़ता है, इस गति में आनुपूर्वी नामकर्म कारण है। यदि जीव का उत्पत्ति स्थान समश्रेणी में हो तो आनुपूर्वी नामकर्म का उदय नहीं होता है अर्थात् वक्रगति में ही आनुपूर्वी नाम कर्म का उदय होता है, ऋजुगति में नहीं / आनुपूर्वी के चार भेद हैं-1. देवानुपूर्वी नाम कर्म : जिस कर्म के उदय से आत्मा विग्रह गति द्वारा देव भव में जाती है उसे देवानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं / 2. मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म : जिस कर्म के उदय से आत्मा विग्रहगति द्वारा मनुष्य भव प्राप्त करती है, उसे मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं | 3. तिर्यंचानुपूर्वी नामकर्म : जिस कर्म के उदय से आत्मा विग्रहगति द्वारा तिर्यंचगति में जाती है, उसे तिर्यंचानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं / 4. नरकानुपूर्वी नामकर्म : जिस कर्म के उदय से विग्रहगति द्वारा आत्मा नरक गति प्राप्त करती है, उसे नरकानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं | (14.) विहायोगति : जीव की गमनागमन प्रवृत्ति में नियामक कर्म को विहायोगति नामकर्म कहते हैं / इसके दो भेद हैं 1. शुभ विहायोगति : जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी-बैल की तरह शुभ हो उसे शुभ विहायोगति कहते हैं / 2. अशुभ विहायोगति : जिस कर्म के उदय से जीव की चाल ऊँटगधे आदि की तरह अशुभ हो, उसे अशुभ विहायोगति कहते हैं | प्रत्येक-प्रकृतियाँ परघाउदया पाणी परेसिं बलिणंपि होइ दुद्धरिसो / उससिणलद्धि जुत्तो, हवेइ उसास नाम वसा ||44|| (कर्मग्रंथ (भाग-1)) 181