Book Title: Karmgranth Part 01
Author(s): Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 174
________________ नहीं रह सकती है / किसी भी गति में रही आत्मा को शरीर तो धारण करना ही पड़ता है। यद्यपि जीवों के शरीर भिन्न-भिन्न होने पर भी कार्य-कारण आदि की सदृशता के कारण शरीर के कुल 5 विभाग किए गए हैं / इनमें तैजस व कार्मण शरीर तो जीवात्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं / इसके साथ ही जिस है। देव व नरक गति में जीवों के वैक्रिय शरीर होता है, जबकि मनुष्य व तिर्यंच गति में जीवों के औदारिक शरीर होता है। 1. औदारिक शरीर-तीर्थंकर-गणधर की अपेक्षा उदार अर्थात् प्रधान तथा वैक्रिय की अपेक्षा से स्थूल वर्गणा के पुद्गलों से बना शरीर औदारिक शरीर कहलाता है / इस शरीर का छेदन-भेदन हो सकता है, यह शरीर अग्नि से जल भी सकता है / यह शरीर मनुष्य व तिर्यंचों के होता है। 2. वैक्रिय शरीर-विविध रूपों को धारण कर सके, उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं / देव व नारक जीवों को भवधारणीय वैक्रिय शरीर होता है, जबकि मनुष्य व तिर्यंच को लब्धि-जन्य वैक्रिय शरीर होता है / औदारिक वर्गणा की अपेक्षा यह शरीर अत्यंत सूक्ष्म होता है / 3. आहारक शरीर-आहारक लब्धिधारी चौदह पूर्वधर मुनि, तीर्थंकर की ऋद्धि देखने अथवा अपने प्रश्नों के समाधान के लिए आहारक शरीर बनाते हैं / यह शरीर आहारक वर्गणा के पुद्गलों से बना होता है और एक हाथ प्रमाण होता है / यहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जाकर वापस लौटने में भी इस शरीर को मात्र अन्तर्मुहूर्त ही लगता है। ___4. तैजस शरीर-खाए हुए भोजन को पचाने में कारणभूत शरीर को तैजस शरीर कहते हैं / शरीर में रही जठराग्नि यह तैजस शरीर ही है / जिस प्रकार अग्नि में मिट्टी के घड़े को पकाने की शक्ति रही हुई है और आग से पकने के बाद ही वह घड़ा पानी भरने के काम में आ सकता है, उसी प्रकार करता है। कर्मग्रंथ (भाग-1) 166

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