________________ विवेचन 1) गतिनाम कर्म : आत्मा का मूलभूत स्वभाव 'स्थिर' (अचल) रहने का है, परंतु गति नाम कर्म के उदय के कारण आत्मा को एक जगह से दूसरी जगह अर्थात् एक गति से दूसरी गति में जाना पड़ता है | 2) जाति नामकर्म : अनेक व्यक्तियों में रहे समान परिणाम को जाति कहा जाता है / जैसे पृथ्वीकाय, अप्काय आदि सभी को एकेन्द्रिय कहा जाता है / 3-4) शरीर व अंगोपांग नाम कर्म : आत्मा का मूलभूत स्वभाव अशरीरी है, परंतु संसार में रहना हो तो उसे शरीर धारण करना ही पड़ता है / आत्मा को भिन्न भिन्न गति में अलग अलग शरीर की प्राप्ति शरीर नाम कर्म के उदय से और शरीर के अंग उपांग की प्राप्ति अंगोपांग नाम कर्म के उदय से होती है। ____5) बंधन नाम कर्म : जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत औदारिक आदि शरीर पुद्गलों के साथ नवीन ग्रहण किए जानेवाले पुद्गलों का संबंध हो, उसे बंधन नाम कर्म कहते हैं। 6) संघातन नाम कर्म : उत्पत्ति स्थान में आई हुई आत्मा , शरीर नाम कर्म के उदय से, जिस आकाश प्रदेश में हो, उस आकाश प्रदेश में से शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर शरीर रूप में परिणत करती है, फिर उन पुदगलों को अपने शरीर की लंबाई-चौडाई और मोटाई के अनुसार उसका पिंड (समूह) करती है, उसी को शास्त्रीय भाषा में संघातन कहा जाता है। 7) संघयण नाम कर्म : उत्पत्ति स्थान में रही हुई आत्मा, शरीर नाम कर्म के उदय से शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर शरीर पर्याप्ति के बल से रक्त, मांस आदि सात धातुमय शरीर बनाती है, फिर उस शरीर को मजबूत करने के लिए हड्डियों की विशिष्ट रचना होती है, जिसे संघयण कहते हैं | उस संघयण की प्राप्ति संघयण नाम कर्म के उदय से होती है / 8) संस्थान नाम कर्म : शरीर के रूप में परिणत हए पुदगलों को स्वशरीर की लंबाई-चौड़ाई और मोटाई के अनुसार पुद्गल पिंड तैयार होने के बाद उसके अवयव सम और विषम आकार में बनकर अच्छी या खराब आकृति उत्पन्न होती है, उसे संस्थान कहते हैं / 9-10-11-12) वर्ण-गंध-रस और स्पर्श नाम कर्म : संसारी जीव शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें शरीर के रूप में परिणत करता है, उस कर्मग्रंथ (भाग-1) 1156 Held